डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक लघुकथा ‘लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 111 ☆
☆ लघुकथा – लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
रविवार के दिन उसने साइकिल निकाली और चल पड़ा स्टेडियम की ओर। फुरसत की सुबह उसे अच्छी लगती है, हर दिन से कुछ अलहदा। ‘आज मनीष को भी साथ ले चलता हूँ’- उसने सोचा। वह तो अब तक बिस्तर में ही अलसाया पड़ा होगा। उसने आवाज लगाई – मनीष! जल्दी आ नीचे, स्टेडियम चलते हैं।
‘अरे नहीं यार! संडे की सुबह कोई ऐसे खराब करता है क्या?‘ मनीष ने बालकनी में आकर अलसाए स्वर में कहा।
तू नीचे आ जल्दी, आज तुझे लेकर ही मैं जाऊँगा। रुका हूँ तेरे लिए।
आता हूँ यार! तू कहाँ पीछा छोड़ने वाला है।
‘अरे! यहाँ तो बहुत लोग आते हैं’ – स्टेडियम में जॉगिंग करने और टहलने वालों की भीड़ देखकर मनीष बोला।
सब तेरी तरह आलसी थोड़े ही ना हैं। हर उम्र के लोग दिखाई देंगे तुझे यहाँ। बहुत अच्छा लगता है मुझे यहाँ आकर। ऐसा लगता है कि सब कुछ जीवंत हो गया है। लडकों को क्रिकेट खेलते देखकर अपना समय याद आ जाता है। मजे थे यार! उस उम्र के, साइकिल उठाई और चल दिए स्टेडियम में या कभी घर के पास वाले मैदान में क्रिकेट खेलने के लिए – वह तेज गति से चलता हुआ बोलता जा रहा था।
मनीष मानों कहीं और खोया था, उसकी नजर स्टेडियम की भीड़ को नाप – जोख रही थी। कहीं लड़के क्रिकेट खेल रहे थे तो कहीं फुटबॉल। उन्हें देखकर वह कुछ गंभीर स्वर में बोला – ‘कितने लड़के खेल रहे हैं ना यहाँ?‘
‘हाँ, हमेशा ही खेलते हैं, इसमें कौन सी नई बात है?’
‘हाँ, पर लड़कियां खेलती हुई क्यों नहीं दिखाई दे रहीं? रविवार की सुबह है फिर भी?’
उसकी नजर पूरे स्टेडियम का चक्कर लगाकर खाली हाथ लौट आई।
©डॉ. ऋचा शर्मा
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