श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “संस्कृति से जुड़ाव…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ संस्कृति से जुड़ाव… ☆
बसंत की बहार से तो सभी परिचित हैं, किंतु जब बात इससे आगे बढ़े तो मन फागुन के रंगों से सराबोर हो उठता है, कानों में फाग का राग सुनाई देना कोई नयी बात नहीं होती। वास्तव में ये सब बदलाव का संकेत होता है। आजकल जिस तेजी के साथ घटनाक्रम घटित हो रहे हैं, उससे सबसे ज्यादा प्रभावित मीडिया होता है। एक न्यूज को हाइलाइट करने के चक्कर में, सारे अन्य छोटे- बड़े घटनाक्रमों को अनजाने ही छोड़ देता है। बात तर्क – वितर्क तक हो तो अच्छा है किंतु जब टी आर पी का चक्कर भारी पड़ने लगता है तो जिसके वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हों उन्हीं पर टी. व्ही. चैनल भी फोकस कर लेता है। अब तो चाहें मोबाइल चलाओ चाहे टी. व्ही. एक ही मुद्दा मिलेगा।
कर लो दुनिया मुट्ठी में, ये नारा सचमुच दूरगामी दृष्टिकोण का उदाहरण है। एक क्लिक पर सब कुछ हाजिर हो जाना क्या किसी अलाद्दीन के चिराग़ से कम लगता है?
इन सबमें यदि कुछ खटकता है तो वो –
अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति प्रज्ञा सुशीलत्वदमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्चबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च।।
ये श्लोक मनुष्यता के भावों को बखूबी दर्शाता है, इसका अर्थ है – ये आठ गुण मनुष्यों को सुशोभित करते हैं-
बुद्धि, चरित्र, आत्म-नियंत्रण, शास्त्र-अध्ययन, साहस, मितभाषी, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता।
बस यही सब भाव डिजिटल की भेंट चढ़ने लगे हैं। अभी भी समय है, हमें अपनी संस्कृति को समझने हेतु अपने वैदिक ग्रन्थों से जुड़ना होगा, जो वैज्ञानिकता की दृष्टि से भी सही सिद्ध होते जा रहे हैं।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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