श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “हम मुहब्बत के फ़साने को यूं न रुस्वा करें…”।)
ग़ज़ल # 64 – “हम मुहब्बत के फ़साने को यूं न रुस्वा करें…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
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क्या पता था मुहब्बत का यह अंजाम होगा,
सूजी पलकों पर यह आख़िरी सलाम होगा।
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महकती फ़िज़ा कल तलक रोशनी पुरनूर थी,
बंद लिफ़ाफ़ा तुम्हारी जुदाई का पैग़ाम होगा।
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हम मुहब्बत के फ़साने को यूं न रुस्वा करें,
सोचते क्यों नहीं इश्क़ हमारा बदनाम होगा।
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अब कोर्ट के दर से फ़लाँ वल्द फ़लाँ गूंजेगा,
शर्तिया हमारा नाम अब नहीं गुमनाम होगा।
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वो साथ उठते-बैठते खाते-पीते गुनगुनाते थे,
अब बैंक खातों का खुलासा सरे आम होगा।
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दिन तो गुज़रेगा टूटे प्यालों को समेटने में,
शाम घिरते सूखे उदास होंठों पर जाम होगा।
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भटकी ज़िंदगी बियाबान झाड़ी में उलझ गई,
आतिश आशिक़ी पर सितम हर बाम होगा।
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© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
भोपाल, मध्य प्रदेश
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈