श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सेवा भाव के बहाने…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 138 ☆

☆ सेवा भाव के बहाने ☆

सेवक राम जी चारों ओर अपने कार्यों का ढिंढोरा  पीट रहे थे। हर रविवार अखबारो में फ्रंट पेज पर उनकी उपस्थिति लगभग तय रहती है। समाज सेवा का उनका बरसों पुराना अनुभव रहा है। ये बात अलग है कि लोगों ने उनको देर से पहचाना।

अपनी तारीफ करने के चक्कर में अनजाने ही वो कुछ ऐसा भी बोल देते हैं कि अपने बिछाए जाल में खुद फंसने लगते। किन्तु उनके सूत्र उन्हें पहले ही आगाह कर देते हैं सो वे बच जाते और बिचौलिए पकड़ जाते। उनकी एक खूबी और है कि वो भावनाओं को पहचान कर रिश्ते बनाने में माहिर हैं, सबसे रिश्ते जोड़ते हुए काम पड़ने पर उनका  इस्तेमाल करना और फिर दूध  में पड़ी मख्खी की तरह फेक देना। एक – एक करके विश्वसनीय व्यक्तियों को दूर करने के बाद स्वघोषित महाराज बनने का सुकून उनके चेहरे पर साफ देखा जा सकता है। ये बात अलग है कि दूसरों को धोखा देने के लिए चेहरा उतारने की नाकाम कोशिश लगातार की जा रही है। उनके बारे में लोगों ने जो भी भविष्यवाणी की है वो सब सामने आती जा रहीं हैं किंतु वे तो सेवक हैं सो अपने नाम के अनुरूप सेवा देना आखिरी दम तक जारी रखेंगे। अन्ततः यही मुक्तक याद आ रहा है-

स्नेहिल डोर से बँधे रिश्ते, बदलते नहीं हैं।

बिना मौसम बाग में भी, फूल खिलते  नहीं है।।

अपना नसीब  स्वयं लिख सको, ऐसे कर्म करो।

बिना परिश्रम किये कोई, फल मिलते नहीं हैं।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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