श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावप्रवण लघुकथा “ प्रेम ”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 27 ☆
☆ लघुकथा – प्रेम ☆
रेल की पटरियों के किनारे, स्टेशन के प्लेटफार्म से थोड़ी दूर, ट्रेन को आते जाते देखना रोज ही, मधुबनी का काम था। रूप यौवन से भरपूर, जो भी देखता उसे मंत्रमुग्ध हो जाता था। कभी बालों को लहराते, कभी गगरी उठाए पानी ले जाते। धीरे-धीरे वह भी समझने लगी कि उसे हजारों आंखें देखती है। परंतु सोचती ट्रेन में बैठे मुसाफिर का आना जाना तो रोज है। कोई ट्रेन मेरे लिए क्यों रुकेगी।
एक मालगाड़ी अक्सर कोयला लेकर वहां से निकलती। कोयला उठाने के लिए सभी दौड़ लगाते थे। उसका ड्राइवर जानबूझकर गाड़ी वहां पर धीमी गति से करता या फिर मधुबनी को रोज देखते हुए निकलता था। मधुबनी को उसका देखना अच्छा लगता था। परंतु कभी कल्पना करना भी उसके लिए चांद सितारों वाली बात थी।
एक दिन उस मालगाड़ी से कुछ सज्जन पुरुष- महिला उतरे और मधुबनी के घर की ओर आने लगे। साथ में ड्राइवर साहब भी थे। सभी लोग पगडंडी से चलते मधुबनी के घर पहुंचे और एक सज्जन जो ड्राइवर के पिताजी थे। उन्होंने मधुबनी के माता पिता से कहा – हमारा बेटा सतीश मधुबनी को बहुत प्यार करता है। उससे शादी करना चाहता है क्या आप अपनी बिटिया देना चाहेंगे। सभी आश्चर्य में थे, परंतु मधुबनी बहुत खुश थी और उसका प्रेम, इंतजार सभी जीत गया। सोचने लगी आज आंखों के प्रेम ने ज़िन्दगी की चलती ट्रेन को भी कुछ क्षण रोक लिया।
© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
जबलपुर, मध्य प्रदेश