हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 26 ☆ज़िन्दगी की शर्त…संधि-पत्र ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “ज़िन्दगी की शर्त…संधि-पत्र”.    नतमस्तक हूँ  डॉ मुक्ता जी की लेखनी का जो  नारी की पीड़ा  जैसे संवेदनशील तथ्यों  पर सतत  लिखकर ह्रदय को उद्वेलित करती हैं ।  चाहे प्रसाद जी की कालजयी रचना  ‘कामायनी ‘ की पंक्तियों हों या समाज में हो रही  वीभत्स घटनाएं  उनका संवेदनशील ह्रदय और लेखनी उनको लिखने से रोक नहीं सकती। यदि मैं उन्हें नारी सशक्तिकरण विमर्श की प्रणेता  कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मैं निःशब्द हूँ और इस ‘निःशब्द ‘ शब्द की पृष्ठभूमि को संवेदनशील और प्रबुद्ध पाठक निश्चय ही पढ़ सकते हैं. डॉ मुक्त जी की कलम को सदर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 26 ☆

☆ ज़िन्दगी की शर्त…संधि-पत्र

हर पल अहसास दिलाती हैं मुझे/ प्रसाद जी की दो पंक्तियां…

‘तुमको अपनी स्मित रेखा से

यह संधि पत्र लिखना होगा’

… और मैं खो जाती हूं अतीत में, आखिर कब तक यह संधि पत्र…जो विवाह की सात भांवरों के समान अटल है, जिसे सात जन्म के बंधन के रूप में स्वीकारा जाता है…लिखा जाता रहेगा। परंतु यह आज के ज़माने की ज़रूरत नहीं है। समय बदल चुका है।भले ही चंद महिलाएं अब नकार चुकी है, इस बंधन को…और पुरुषों की तरह स्वतंत्र जीवन जीने में विश्वास रखती हैं, उन्मुक्त भाव से अपनी ज़िंदगी बसर कर रही हैं…परंतु क्या वे स्वतंत्र हैं … निर्बंध हैं? क्या उन्हें सामाजिक भय नहीं, क्या उन्हें अपने आसपास भयानक साये मंडराते हुए नहीं प्रतीत होते? क्या उन्हें सामाजिक व पारिवारिक प्रताड़ना को नहीं झेलना पड़ता? परिवारजनों का बहिष्कार व उससे संबंध-विच्छेद करने का भय उन्हें हर पल आहत नहीं करता? जिस घर को वह अपना समझती थीं, उसे त्यागने के पश्चात् उन्हें किसी भयंकर व भीषण आपदा का सामना नहीं करना पड़ता? कल्पना कीजिए, कितनी मानसिक यातना से गुज़रना पड़ता होगा उन्हें? क्या किसी ने अनुभव किया है उस मर्मांतक पीड़ा को…शायद! किसी ने नहीं। सब के हृदय से यही शब्द निकलते हैं… ‘ऐसी औलाद से बांझ भली।’ अच्छा था वह पैदा होते ही मर जाती, तो हमारे माथे पर कलंक तो न लगता। देखो! कैसे भटक रही है सड़कों पर…क्या कोई अपना है उसका…शायद इस जहान में वह अकेली रह गई है। सुना था, खून के रिश्ते, कभी नहीं टूटते। परंतु आज कल तो ज़माने का चलन ही बदल गया है।

प्रश्न उठता है…आखिर उसके माता-पिता ने इल्ज़ाम लगा कर उसे कटघरे में क्यों खड़ा कर दिया? उन्होंने उसे उसकी प्रथम भूल समझ कर, उसे अपने घर में पनाह क्यों नहीं दी? परंतु ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि उन्हें अपनी औलाद से अधिक, अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा व मान-मर्यादा की परवाह थी, कि ‘लोग क्या कहेंगे’…शायद इसी लिये वे पल भर में उसे प्रताड़ित कर,घर से बेदखल कर देते हैं ताकि समाज में उनका रुतबा बना रहे और उन्हें वहां वाह-वाही मिलती रहे। क्या उन्हें उस  यह ध्यान आता है कि वह निरीह बालिका आखिर जायेगी कहां…क्या हश्र होगा उस की ज़िंदगी का…एक प्रताड़ित बालिका को कौन आश्रय देगा…यह सब बातें उन्हें बेमानी भासती हैं।

आखिर कौन बदल सका है तक़दीर किसी की… इंसान क्यों भुला बैठता है…बुरे कर्मों का फल सदैव बुरा ही होता है। सो! बेटियों को कभी भी घर की चारदीवारी को नहीं लांघना चाहिए। यह उपदेश देते हुए वे भूल जाते हैं कि वह मासूम निर्दोष भी हो सकती है…शायद  किसी मनचले ने उसके साथ ज़बरदस्ती दुष्कर्म किया हो? वे उस हादसे की गहराई तक नहीं जाते और अकारण उस मासूम पर दोषारोपण कर उसे व उनके माता-पिता को कटघरे में खड़ा कर देते हैं।

प्रश्न उठता है…क्या उस पीड़िता ने अपना अपहरण कराया स्वयं करवाया होगा? क्या उसे दुष्कर्मियों का  निवाला बनने का शौक था?क्या उसने चाहा था कि उसकी अस्मत लूटी जाए और वह दरिंदगी की शिकार हो?नहीं… नहीं… नहीं, यह असंभव है। उसके लिए तोउस घर के द्वार सदा के लिए बंद हो जाते हैं।अक्सर उसे बाहर से ही चलता कर दिया जाता है कि अब उनका उस निर्लज्ज से कोई रिश्ता- नाता नहीं। यदि उसे घर में प्रवेश पाने की अनुमति प्रदान कर दी जाती है, तो उसके साथ मारपीट की जाती है, उसे ज़लील किया जाता है और किसी दूरदराज़ के संबंधी के यहां भेजने का फ़रमॉन जारी कर  दिया जाता है, ताकि किसी को कानों-कान खबर न हो कि वह अभागिन बालिका दुष्कर्म की शिकार हुई है।

अब उसके सम्मुख विकल्प होता है… संधिपत्र का, हिटलर के शाही फ़रमॉन को स्वीकारने का…अपने  भविष्य को दांव पर लगाने का… अपने हाथों मिटा डालने का… जहां उसके अरमान,उसकी आकांक्षाएं, उसके सपने पल भर में राख हो जाते हैं और उसे भेज दिया जाता है दूर…कहीं बहुत दूर, अज्ञात- अनजान स्थान पर, जहां वह अजनबी सम अपना जीवन ढोती है। यहां भी उसकी समस्याओं का अंत नहीं होता… उसे सौंप दिया जाता है, किसी दुहाजू, विधुर पिता-दादा समान आयु के व्यक्ति के हाथों, जहां उसे हर पल मरना पड़ता है। वह चाह कर भी न अपनी इच्छा प्रकट कर पाती है,न ही विरोध दर्ज करा पाती है, क्योंकि वह अपराधिनी कहलाती है,भले ही उसने कोई गलत काम याअपराध न किया हो।

भले ही उसका कोई दोष न हो,परंतु माता-पिता तो पल्ला झाड़ लेते हैं तथा विवाह के अवसर पर खर्च होने वाली धन-संपदा बचा कर, फूले नहीं समाते। सो! उनके लिए तो यह सच्चा सौदा हो जाता है। आश्चर्य होगा आपको यह जानकर कि संबंध तय करने की ऐवज़ में अनेक बार उन्हें धनराशि की पेशकश भी की जाती है, वे अपने भाग्य को सराहते नहीं अघाते। यह हुआ न आम के आम,गुठलियों के दाम। अक्सर उस निर्दोष को उन विषम परिस्थितियों से समझौता करना पड़ता है, जो उसके माता-पिता विधाता बन उसकी ज़िंदगी के बही-खाते में लिख देते हैं।

आइए दृष्टिपात करें, उसके दूसरे पहलू पर… कई बार उसे संधिपत्र लिखने का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता। उसे ज़िदगी में दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया जाता है, जहां कोई भी उसकी सुध नहीं लेता। वह हर दिन नई दुल्हन बनती हैं…एक दिन में चालीस-चालीस लोगों के सम्मुख परोसी जाती हैं। यह आंकड़े सत्य हैं… के•बी•सी• के मंच पर,  एक महिला कर्मवीर, जिसने हज़ारों लड़कियों को ऐसी घृणित ज़िंदगी अर्थात् नरक से निकाला था, उनसे साक्षात्कार प्रस्तुत किए गये कि किस प्रकार उन्हें उनके बच्चों का हवाला देकर एक-एक दिन में, इतने लोगों का हम-बिस्तर बनने को विवश किया जाता है…और यह समझौता उन्हें अनचाहे अर्थात् विवश होकर करना ही पड़ता है। ऐसी महिलाओं के समक्ष नतमस्तक है पूरा समाज,जो उन्हें आश्रय प्रदान कर, उस नरक से मुक्ति दिलाने का साहस जुटाती हैं।

वैसे भी आजकल ज़िंदगी शर्तों पर चलती है। बचपन में ही माता-पिता बच्चों को इस तथ्य से अवगत करा देते हैं कि यदि तुम ऐसा करोगे, हमारी बात मानोगे, परीक्षा में अच्छे अंक लाओगे, तो तुम्हें यह वस्तु मिलेगी…यह पुरस्कार मिलेगा।इस प्रकार बच्चे आदी हो जाते हैं, संधि-पत्र लिखने अर्थात् समझौता करने के और अक्सर वे प्रश्न कर बैठते हैं,यदि मैं ऐसा कर के दिखलाऊं, तो मुझे क्या मिलेगा…इसके ऐवज़ में? इस प्रकार यह सिलसिला अनवरत जारी रहता है। हां! केवल नारी को मुस्कुराते हुए अपना पक्ष रखे बिना, नेत्र मूंदकर संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने लाज़िम हैं। वैसे भी औरत में तो बुद्धि होती ही नहीं, तो सोच-विचार का तो प्रश्न ही कहां उठता है? उदाहरणत: एक प्रशासनिक अधिकारी, जो पूरे देश का दायित्व बखूबी संभाल सकती है, घर में मंदबुद्धि अथवा बुद्धिहीन कहलाती है। उसे हर पल प्रताड़ित किया जाता जाता है, सबके बीच ज़लील किया जाता है…अकारण दोषारोपण किया जाता है। यहां पर ही उसकी दास्तान का अंत नहीं होता, उसे विभिन्न प्रकार की शारीरिक व मानसिक यंत्रणाएं दी जाती हैं…ऐसे मुकदमे हर दिन महिला आयोग में आते हैं, जिनके बारे में जानकार हृदय में  ज्वालामुखी की भांति आक्रोश फूट निकलता है और मन सोचने पर विवश हो जाता है,आखिर यह सब कब तक?

हम 21वीं सदी के बाशिंदे…क्या बदल सके हैं अपनी सोच…क्या हम नारी को दे पाए हैं समानाधिकार… क्या हम उसे एक ज़िंदा लाश या रोबोट नहीं समझते … जिसे पति व परिवारजनों के हर उचित-अनुचित आदेश की अनुपालना करना अनिवार्य है… अन्यथा अंजाम से तो आप बखूबी परिचित हैं।आधुनिक युग में हम नये-नये ढंग अपनाने लगे हैं… मिट्टी के तेल का स्थान, ले लिया है पैट्रोल ने, बिजली की नंगी तारों व तेज़ाब से जलाने व पत्नी को पागल करार करने का धंधा भी बदस्तूर जारी है।भ्रूणहत्या के कारण, दूसरे प्रदेशों से खरीद कर लाई गई दुल्हनों से, तो उनका नाम व पहचान भी छीन ली जाती है और वे अनामिका व मोलकी के नाम से आजीवन संबोधित की जाती हैं। मोलकी अर्थात् खरीदी हुई वस्तु… जिससे मालिक मनचाहा व्यवहार कर सकता है और वे अपना जीवन बंधुआ मज़दूर के रूप में ढोने को विवश होती हैं।अक्सर नौकरीपेशा शिक्षित महिलाओं को हर दिन कटघरे में खड़ा किया जाता है। कभी रास्ते में ट्रैफिक की वजह से, देरी हो जाने पर, तो कभी कार्यस्थल पर अधिक कार्य होने की वजह से, उन्हें कोप-भाजन बनना पड़ता है।अक्सर कार्यालय में भी उनका शोषण किया जाता है। परंतु उन्हें अनिच्छा से वह सब झेलना पड़ता है क्योंकि नौकरी करना उनकी मजबूरी होती है। वे यह जानती हैं कि परिवार व  बच्चों के पालन-पोषण व अच्छी शिक्षा के निमित्त उन्हें यह समझौता करना पड़ता है। यह सब ज़िंदगी जीने की शर्तें हैं, जिनका मालिकाना हक़ क्रमशः पिता,पति व पुत्र को हस्तांतरित किया जाता है। परंतु औरत की नियति जन्म से मृत्यु पर्यंत वही रहती है, उसमें लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं होता।

‘औरत दलित थी,दलित है और दलित रहेगी’ कहने में अतिशयोक्ति नहीं है। वह सतयुग से लेकर आज तक 21सवीं सदी तक शोषित है, दोयम दर्जे की प्राणी है और उसे सदैव सहना है,कहना नहीं…यही  एकतरफ़ा समझौता ही उसके जीने की शर्त है। उसे आंख, कान ही नहीं, मुंह पर भी ताले लगाकर जीना है। वैसे उसकी चाबी उसके मालिक के पास है, जिसे वह बिना सोच-विचार के, अकारण किसी भी पल घुमा सकता है। हर पल औरत के ज़हन में प्रसाद की पंक्तियां दस्तक देकर अहसास दिलाती हैं…जीने का अंदाज से सिखलाती हैं… उसकी औकात दर्शाती हैं  और उसके हृदय को सहनशीलता से आप्लावित करती हैं और वह अपने पूर्वजों की भांति आचार- व्यवहार व ‘हां जी’ कहना स्वीकार लेती हैं क्योंकि नारी तो केवल श्रद्धा है! विश्वास है! उसे आजीवन सब के सुख,आनंद व समन्वय के लिए निरंतर बहना है ताकि जीवन में सामंजस्य बना रहे।

वैसे भी हमारे संविधान निर्माताओं ने सारे कर्त्तव्य अथवा दायित्व नारी के लिए निर्धारित किए हैं और अधिकार प्रदत्त हैं पुरुष को,जिनका वह साधिकार, धड़ल्ले से प्रयोग कर रहा है… उसके लिए कोई नियम व कायदे-कानून निर्धारित नहीं हैं।

पराधीन तो औरत है ही…जन्म लेने से पूर्व, भ्रूण रूप में ही उसे  दूसरों की इच्छा को स्वीकारने की आदत-सी हो जाती है और अंतिम सांस तक वह    अंकुश में रहती है। ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ‘ अर्थात्  गुलामी में वह कैसे सुख-चैन की सांस ले सकती है? उसकी ज़िंदगी उधार की होती है, जो दूसरों की इच्छा पर आश्रित है,निर्भर है।

अंततः नारी से मेरी यह इल्तज़ा है कि उसे हंसते- हंसते जीवन में संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने होंगे…मौन रहकर  सब कुछ सहना होगा।यदि उसने इसका विरोध किया तो भविष्य से वह अवगत है,जो उसके स्वयं के लिए, परिवार व समाज के लिए हितकर नहीं होगा। आइए! इस तथ्य को मन से स्वीकारें,  ताकि यह हमारे रोम-रोम व सांस-सांस में बस जाए और आंसुओं रूपी जल-धारा से उसका अभिषेक होता रहे।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878