श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक माइक्रो व्यंग्य – “उगलत लीलत पीर घनेरी...”।)
☆ माइक्रो व्यंग्य # 180 ☆ “उगलत लीलत पीर घनेरी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
कुछ दिनों से गंगू को कोई वामपंथी कहकर चिढ़ाता तो कोई दक्षिणपंथी कहता। गंगू जब तंग हो गया तो उसने अपने आप को टटोला, कुछ हरकतें वामपंथी जैसी दिखीं कुछ आदतें दक्षिणपंथी से मेल खाती मिलीं।
मां से पूछा -जब हम पैदा हुए थे तो वामपंथी जैसे पैदा हुए थे या दक्षिणपंथी जैसे ?
मां ने ज़बाब दिया- बेटा तुम्हारे पिता जी वामपंथी थे और मैं जन्म से दक्षिणपंथी थी जब तुम पैदा हुए थे तो तुम उल्टा पैदा हुए थे, ऊपर से दक्षिणपंथी और अंदर से वामपंथी।
मां की बातें सुनकर गंगू परेशान हो गया था, जंगल की तरफ भागकर गांव के पीपल के नीचे बैठकर चिंतन मनन करने लगा। थोड़ी देर बाद एक गांव वाला लोटा लिए कान में जनेऊ बांधे शौच को जाते दिखा। गंगू ने रोककर पूछा – भाई ये बताओ कि इन दिनों मीडिया में वामपंथी और दक्षिणपंथी की खूब चर्चा हो रही है। गांव वाले को जोर की लगी थी जनेऊ कान में उमेठते हुए बोला – जो जनेऊ न पहनें और जनेऊ बिना कान में बांधे शौचालय जाए फिर बाहर निकलकर हाथ न धोये वो वामपंथी और जो कान में जनेऊ लपेटकर दक्षिण दिशा में बैठकर शौच करे वो दक्षिणपंथी…
गंगू सुनकर सोचने लगा आगे चिंतन मनन करूं कि नहीं।
“फासले ऐसे भी होंगे,
ये कभी सोचा न था,”
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