हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 13 – क्या खोया क्या पाया ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले
श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर रचना क्या खोया क्या पाया . अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकेंगे. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 13 – विशाखा की नज़र से ☆
☆ क्या खोया क्या पाया ☆
फिर एक साल बीत रहा
गणना का अंक जीत रहा
इस बीतते हुए वर्ष में
जीवन की उथल -पुथल में
ऐ ! मेरे मन तूने
क्या खोया ,क्या पाया …
नव विचारों का घर बनाया
पुराने को दूर भगाया
उघड़े चुभते बोलों से
सच को समक्ष लाया
सच के इस भवन में
ऐ ! मेरे मन तूने ,
क्या खोया ,क्या पाया ….
फिर से दिन वही आएंगे
क्रम से त्यौहार चले आएँगे
इतने रंग-बिरंगी उत्सवों में
अपने रंग -ढंग छुपाए
ऐ ! मेरे मन तूने
क्या खोया ,क्या पाया ..
इमारते गढ़ती जाए
आसमां को छू वो आए
नए परिधान में लिपटे हम
हर जगह घूम कर आएँ
इस घूम -घुम्मकड़ जग में
इन भूलभुलैया शहर में
सपनों की उठती लहर में
गोते लगाए मन तूने
क्या खोया क्या पाया
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र