आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित “दोहा सलिला – मन के दोहे”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 133 ☆
☆ दोहा सलिला – मन के दोहे… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
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मन जब-जब उन्मन हुआ, मन ने थामी बाँह.
मन से मिल मन शांत हो, सोया आँचल-छाँह.
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मन से मन को राह है, मन को मन की चाह.
तन-धन हों यदि सहायक, मन पाता यश-वाह.
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चमन तभी गुलज़ार हो, जब मन को हो चैन.
अमन रहे तब जब कहे, मन से मन मृदु बैन.
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द्वेष वमन जो कर रहे, दहशत जिन्हें पसंद.
मन कठोर हो दंड दे, मिट जाए छल-छंद.
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मन मँजीरा हो रहा, तन कीर्तन में लीन.
मनहर छवि लख इष्ट की, श्वास-आस धुन-बीन.
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नेह-नर्मदा सलिल बन, मन पाता आनंद.
अंतर्मन में गोंजते, उमड़-घुमड़कर छंद.
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मन की आँखें जब खुलीं, तब पाया आभास.
जो मन से अति दूर है, वह मन के अति पास.
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मन की सुन चेता नहीं, मनुआ बेपरवाह.
मन की धुन पूरी करी, नाहक भरता आह.
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मन की थाह अथाह है, नाप सका कब-कौन?
अंतर्मन में लीन हो, ध्यान रमाकर मौन.
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धुनी धूनी सुलगा रहा, धुन में हो तल्लीन.
मन सुन-गुन सुन-गुन करे, सुने बिन बजी बीन.
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मन को मन में हो रहे, हैं मन के दीदार.
मन से मिल मन प्रफुल्लित, सर पटके दीवार.
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© आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
८.७.२०१८, जबलपुर
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