डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है एक विचारोत्तेजक कविता “ये भगोड़े दिन…….”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 25☆
☆ ये भगोड़े दिन……. ☆
रोज आते
मुँह चिढ़ाते
चिहुंकते से
फिर, निकल जाते
भगौड़े दिन ।
की शिकायत
सूर्य पहरेदार से
विहंसकर उसने कहा
क्यों, झांकते हो द्वार से,
अजब बहुरूपिया
पकड़ पाना असंभव
शीत,वर्षा,घाम, सुख-दुख
रूप इस फनकार के।
मुखोटे अनगिन, पहिन
सब को झिंजोड़े दिन
चिहुंकते से ……….।
रोज छिप जाता
अंधेरी खोह में, और
प्रातः फिर निकल आता
किसी की टोह में,
कौन सी बेचैनियां
तिल-तिल जलाये
व्यथित मन,भटके दिवस भर
किस अबूझ,व्यामोह में।
उबाते मन, डुबाते से
ये निगोड़े दिन
चिहुंकते से………।
गुणनफल और जोड़
विस्मृत हो गए
भाग दे कर, घटाने से जो
बचा है शेष, सपने धो गए,
वक्त प्रहरी गिन रहा
सांसें निरंतर
मन-पटल पर, विरक्ति के
बीज, अपने बो गए।
आवरण खुशफहमियों के
व्यर्थ ओढ़े दिन
चिहुंकते से ,
फिर निकल जाते
भगोड़े दिन।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर, मध्यप्रदेश
मो. 989326601