श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक शिक्षाप्रद बालकथा “हिल मिलकर चल” बच्चों के लिए ही नहीं बड़ों के लिए भी। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #28 ☆

☆ हिल मिलकर चल ☆

जीभ अपनी धुन में चली जा रही थी. तभी उस ने देखा कि वह ट्राफिक में फंस गई. चारों ओर मोटर कार ट्रक चल रहे है. वह बीच में है. निकलने का रास्ता नहीं है. वह घबरा कर दौड़ी. अचानक एक ट्रक उस के ऊपर से गुजर गया. उस का एक भाग कट गया.

वह जोर से चींखीं,‘‘ ऊंई मां, मरी. कोई बचाओ ?’’

‘‘क्या हुआ ? क्यों चींख रही हो ?’’ दांत ने डपट कर जीभ से कहा.

जीभ चौंकी. उस ने इधर उधर नजर दौड़ाई. वह अपने मुंह में सुरक्षित थी. पास का दांत उसे डपट रहा था.

‘‘तू कहां खो गई थी. तूझे मालुम नहीं पड़ता है. मेरे दांत को बदरंग कर दिया.’’

जीभ ने नजर उठा कर दाढ़ को देखा. वह सफेद से लाल हो चुकी थी. उस का रंग बदरंग हो गया था. तभी उसे अपने कोने पर दर्द हुआ. वहां नजर दौड़ाई. जीभ का एक भाग दांत से कट गया था.

‘‘देख कर काम नहीं करती हो.’’ दाढ़ ने कहा,‘‘ अंधी हो कर चल रही थी. समझ में नहीं आता है. आखिर हम कब तक बचाते. तुम हमारे बीच आ ही गई.’’

जीभ परेशान थी. उसे दर्द हो रहा था. दाढ़ का इस तरह बोलना उसे अच्छा नहीं लगा. वह चिढ़ पड़ी,‘‘अबे अकल के लट्ठ ! कब से मुझे परेशान कर रहा है. एक तो तूने ध्यान नहीं रखा. मुझे काट दिया. फिर जोरजोर से बोल कर मुझे डरा रहा है.’’

दांत को जीभ से इस तरह बोलने की आशा नहीं थी. वह मुलायम जीभ को मुलायम लहजे में बोलने की आशा कर रहा था. दांत स्वयं कठोर था. मगर, जीभ कठोर भाषा में बोलेगी, यह वह नहीं जानता था.

दांत चिढ़ गया,‘‘ अबे ओ लाल लंगूर. एक तो गलती करती हो और ऊपर से शेर बनती हो. जानती हो, तुम्हारा काम, मेरे बिना नहीं चल सकता है. इसलिए मुझ से संभल कर बातें कर करों. समझी ?’’

जीभ कब पीछे रहने वाली थी. उस का काम बातबात पर जोर ज़ोर से चलना था. कोई उसे उलटा सीधा बोले, उसे समझाएं, यह वह कैसे बर्दाश्त कर सकती थी,‘‘ अबे जा. किसी और को डराना. तेरे बिना भी मेरा काम चल सकता है.’’

दांत को भी गुस्सा आ गया,‘‘ क्या कहा. तेरा, मेरे बिना भी काम चल सकता है.’’ यह कहते हुए दांत जीभ की ओर लपका. दांत की सेना को अपने ऊपर आता देख कर जीभ तालू से चिपक गई.

जीभ जानती थी कि वह दांत के हमले से पहले ही घायल हो चुकी है. यदि वापस दांतों ने हमला कर दिया तो उस के टुकड़े टुकड़े हो जाएंगे. मगर, वह जबान चलाने में पक्की थी. इसलिए उस ने कहा,‘‘अबे ओ. बेसूरे की तान. तेरा, मेरे बिना नहीं चलना काम.’’

‘‘देखते हैं किस का, किस के बिना काम नहीं चलता है ?’’ दाढ़ ने चुनौती दी.

जीभ कब पीछे रहने वाली थी,‘‘हां हां देख ले. कौन हारता है ?’’

जीभ ने अपना काम बंद कर दिया. दांत भूखा था. उसे प्यास लग रही थी. मगर, वह बर्दाश्त करता रहा. उस के ऊपर खाने की गंदगी लगी हुई थी. उसे समझ में नहीं आया कि उसे कैसे साफ करें.

दांत ने अपने आप को जोर से हिलाया. मगर, उस पर लगी गंदगी साफ नहीं हुई. जीभ ने स्वाद भेजना बंद कर दिया था. मुंह में पानी आना बंद हो गया.

दांत पर लगी मिर्ची से दांत जलने लगे.

जीभ पर मिर्ची लगी हुई थी. वह भी जलने लगी. उस ने मुंह में पानी लाने के लिए संदेश भेजा. मुंह में पानी आ गया. मगर, वह अंदर नहीं जा रहा था. दांत ने हिलना बंद कर दिया था. जीभ की जलन कम नहीं हुई.

जीभ ने चिल्लाने की कोशिश की. मगर दांत ने हिलना बंद कर दिया था. जीभ बोल नहीं पाई. बंद मुंह में जीभ हिलती रही मगर आवाज बाहर नहीं निकल रही थी.

दांत को भूख लगी. उस ने मुंह खोल लिया. रोटी मुंह में ली. चबाई. मगर, यह क्या ? रोटी जहां पड़ी थी, वही पड़ी रही. रोटी को पलटाने वाली जीभ चुपचाप पड़ी थी. दांत रोटी को नहीं खा पाया.

दाढ़ ने कटर दांत से कहा,‘‘ भाई, रोटी काटो.’’

कटर दांत रोटी काट चुका था,‘‘ इसे कोई उलटे पलटे तो मैं दूसरी जगह से रोटी काटूं,’’ उस ने असमर्थता जताई.

दाढ़ बोली, ‘‘तब तो मैं भी रोटी को पीस नहीं पाऊंगी.’’

जीभ को प्यास लग रही थी. उस ने पानी पीने के लिए संदेश भेजा. हाथ ने गिलास उठाया. मुंह तक लाया. मगर, दांत ने काम करने से मना कर दिया. मुंह नहीं खुला. जीभ पानी नहीं पी पाई.

जीभ समझ गई कि दांत के बिना उस का काम नहीं चल सकता है. दांत को अपने को साफ करना था. वह भी चाहता था कि पानी मुंह में आ जाए. मगर, वह जीभ को सबक सीखाना चाहता था. इसलिए कुछ नहीं बोला पाया.

एक दाढ़ बहुत बूढ़ी हो गई थी. वह गिर कर मरने वाली थी. उस ने मजबूत दाढ़ से कहा,‘‘ बेटा ! मुंह मैं रह कर जीभ से लड़ना अच्छी बात नहीं है.’’

यही बात उस ने जीभ से कही,‘‘ बेटी ! तुम्हारा काम दांत के बिना नहीं चल सकता है. दांत का काम तुम्हारे बिना नहीं चल सकता है. दोनों जब एक दूसरे की सहायता करोगे तब ही मुंह का काम चलेगा.

‘‘अन्यथा, न मुंह बोल पाएगा. न खा पाएगा. दांत भोजन को पीसेगे, मगर उसे पलटेगा कौन ? जीभ बोलेगी, मगर दांत के बिना उस का उच्चारण नहीं हो पाएगा . इसलिए बिना एकदूसरे की किसी का काम चलने वाला नहीं है.’’

जीभ यह बात समझ चुकी थी. दाढ़ को भी इस बात का पता चल गया था. दोनों का एकदूसरे के बिना काम चलने वाला नहीं है.

जीभ बोली, ‘‘हां दादा, गलती मेरी थी. मैं ध्यान से काम नहीं कर रही थी. इस कारण आप के बीच में आ गई. आपं ने अनजाने में मुझे काट लिया.’’

इस पर दांत ने कहा,‘‘ नहीं नहीं बहन, गलती तुम्हारी नहीं, हमारी है. हम ने अपने बहन की रक्षा नहीं की.’’

यह सुनते ही जीभ की आंखें भर आई. वह अपने दांतभाई के गले से लिपट कर रोने लगी,‘‘भाई, मुझे माफ कर देना. मैं इतनी सी बात समझ नहीं पाई कि हिलमिल कर रहने में ही भलाई है.’’

‘‘हां बहन, यह बात मैं भी भूल गया था,’’ कहते हुए दांत ने काम करना शुरू कर दिया.

जीभ भी चलने लगी.

दांत की सफाई हो गई. उस की प्यास बूझ गई. जीभ की जलन बंद हो गई.

जीभ और दांत दोनों चमक कर हंसने लगे.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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