डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “शब्द शब्द साधना”डॉ मुक्ता जी का यह प्रेरणास्पद आलेख किसी भी पीढ़ी के लिए वरदान है। अक्सर हम क्षणिक भावावेश में कुछ ऐसे शब्दों का उपयोग कर लेते हैं जिसके लिए आजीवन पछताते हैं किन्तु एक बार मुंह से निकले शब्द वापिस नहीं हो सकते। हम जानते हैं कि हमारी असंयमित भाषा हमारे व्यक्तित्व को दर्शाती है किन्तु हम फिर भी स्वयं को संयमित नहीं कर पाते हैं।  डॉ मुक्ता जी ने इस तथ्य के प्रत्येक पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की है।  डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 26 ☆

 

☆ शब्द शब्द साधना

 

‘शब्द शब्द में ब्रह्म है, शब्द शब्द में सार।

शब्द सदा ऐसे कहो, जिन से उपजे प्यार।’

वास्तव में शब्द ही ब्रह्म है और शब्द में ही निहित है, जीवन का संदेश…  सदा ऐसे शब्दों का प्रयोग कीजिए, जिससे प्रेमभाव प्रकट हो। कबीर जी का यह दोहा ‘ऐसी वाणी बोलिए/ मनवा शीतल होय। औरहुं को शीतल करे/ खुद भी शीतल होय…उपरोक्त भावों की पुष्टि करता है। हमारे कटु वचन दिलों की दूरियों को इतना बढ़ा देते हैं, जिसे पाटना कठिन हो जाता है। इसलिए सदैव मधुर शब्दों का प्रयोग कीजिए, क्योंकि शब्द से खुशी/ शब्द से ग़म/ शब्द से पीड़ा/ शब्द ही मरहम। शब्द में नियत हैं खुशी व ग़म के भाव। परंतु उनका चुनाव आपकी सोच पर निर्भर करता है। शब्दों में इतना सामर्थ्य है कि जहां वे मानव को असीम आनंद व अलौकिक प्रसन्नता प्रदान कर सकते हैं, वहीं ग़मों के सागर में डुबो भी सकते हैं। दूसरे शब्दों में शब्द पीड़ा है, शब्द ही मरहम है।  शब्द मानव के रिसते ज़ख्मों पर मरहम का काम भी करते हैं। यह आप पर निर्भर करता है, कि आप किन शब्दों का चुनाव करते हैं।

‘हीरा परखे जौहरी, शब्द ही परखे साध।

कबीर परखे साध को, ताको मता अगाध।’

हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता व उपयोगिता के अनुसार इनका प्रयोग करता है। जौहरी हीरे को परख कर संतोष पाता है, तो साधु शब्दों व सत् वचनों को ही महत्व प्रदान करता है। वह उसके संदेशों को जीवन में उतार कर सुख प्राप्त करता है और कबीर उस साधु को परखता है कि उसके विचारों में कितनी गहनता व सार्थकता है, उसकी सोच कैसी है…और वह जिस राह पर लोगों को चलने का संदेश देता है, उचित है या नहीं। वास्तव में संत वह है जिसकी इच्छाओं का अंत हो गया है और जिसकी श्रद्धा को आप विभक्त नहीं कर सकते, उसे सत् मार्ग पर चलने से नहीं रोक सकते, वही संत है। वास्तव में साधना करने व ब्रह्म चर्य को पालन करने वाला ही साधु है, जो सीधे व  स्पष्ट मार्ग का अनुसरण करता है। इसके लिए आवश्यकता है कि जब हम अकेले हों, अपने विचारों को संभालें अर्थात् कुत्सित भावों व विचारों को अपने मनो-मस्तिष्क में दस्तक न देने दें। अहं व क्रोध पर नियंत्रण रखें क्योंकि यह दोनों मानव केअजात शत्रु हैं, जिसके लिए अपनी कामनाओं-तृष्णाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है।

अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को सबसे दूर कर देता है, तो क्रोध सामने वाले को हानि पहुंचाता है, वहीं अपने लिए भी अनिष्टकारी सिद्ध होता है। अहंनिष्ठ व क्रोधी व्यक्ति आवेश में जाने क्या-क्या कह जाते हैं, जिसके लिए उन्हें बाद में पछताना पड़ता है। परंतु ‘ फिर पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् समय गुज़र जाने के पश्चात् हाथ मलने अर्थात् पछताने का कोई औचित्य अथवा सार्थकता नहीं रहती। प्रायश्चित करना… हमें सुख व संतोष प्रदान करने की सामर्थ्य तो रखता है, ‘परंतु गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता।’ शारीरिक घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु शब्दों के घाव कभी नहीं भरते, वे तो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। परंतु कटु वचन जहां मानव को पीड़ा प्रदान करते हैं, वहीं सहानुभूति व क्षमा-याचना के दो शब्द बोलकर आप उन पर मरहम भी लगा सकते हैं।

शायद! इसीलिए कहा गया है गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी मधुर वाणी द्वारा दूसरे के दु:खों को दूर करने का सामर्थ्य रखता है। आपदाग्रस्त व्यक्ति को ‘मैं हूं ना’ कह देना ही उसमें आत्मविश्वास जाग्रत करता है और उसे विश्वास हो जाता है कि वह अकेला नहीं है… आप सदैव उसकी ढाल बनकर उसके साथ खड़े हैं।

एकांत में व्यक्ति को अपने दूषित मनोभावों पर नियंत्रण करना आवश्यक है तथा सबके बीच अर्थात् समाज में रहते हुए शब्दों की साधना अनिवार्य है… सोच समझकर बोलने की सार्थकता से आप मुख नहीं मोड़ सकते। इसलिए कहा जा सकता है कि यदि आपको दूसरे व्यक्ति को उसकी गलती का अहसास दिलाना है तो उससे एकांत में बात करो… क्योंकि सबके बीच में कही गई बात बवाल खड़ा कर देती है, क्योंकि उस स्थिति में दोनों के अहं टकराते हैं अहं से संघर्ष का जन्म होता है और इस स्थिति में वह एक-दूसरे के प्राण लेने पर उतारू हो जाता है। गुस्सा चांडाल होता है… बड़े-बड़े ऋषि मुनियों के उदाहरण आपके समक्ष हैं… परशुराम का अपनी माता का वध करना व ऋषि गौतम का क्रोध में अहिल्या का श्राप दे देना हमें संदेश देता है कि व्यक्ति को बोलने से पहले सोचना चाहिए तथा उस विषम परिस्थिति में कटु शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए अथवा दूसरों से वैसा व्यवहार करना चाहिए, जिसे आप सहन कर सकते हैं। इसके लिए आवश्यकता है, हृदय की शुद्धता व मन की स्पष्टता की अर्थात् आप अपने मन में किसी के प्रति दुष्भावनाएं मत रखिए… उसके औचित्य-अनौचित्य का भी चिंतन-मनन कीजिए। दूसरे शब्दों में किसी के कहने पर, किसी के प्रति अपनी धारणा मत बनाइए अर्थात् कानों सुनी बात पर विश्वास मत कीजिए क्योंकि विवाह के सारे गीत सत्य नहीं होते। कानों-सुनी बात पर विश्वास करने वाले लोग सदैव धोखा खाते हैं…उनका पतन अवश्यंभावी होता है। कोई भी उनके साथ रहना पसंद नहीं करता. बिना सोचे-विचारे किए गए कर्म केवल आपको हानि ही नहीं पहुंचाते, परिवार, समाज व देश के लिए भी विध्वंसकारी होते हैं।

सो! दोस्त, रास्ता, किताब व सोच यदि गलत हों, तो गुमराह कर देते हैं, यदि ठीक हों, तो जीवन सफल हो जाता है। उपरोक्त कथन हमें आग़ाह करता है कि सदैव अच्छे लोगों की संगति करो, क्योंकि सच्चा मित्र आपका सहायक, निदेशक व गुरू होता है, जो आपको कभी पथ-विचलित नहीं होने देता। वह आपको गलत मार्ग व दिशा में जाने से रोकता है तथा आपकी उन्नति को देख प्रसन्न होता है, आपको उत्साहित करता है। पुस्तकें भी सबसे अच्छी मित्र होती हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘बुरी संगति से इंसान अकेला भला’और एकांत में अच्छा मित्र न  होने की स्थिति में सद्ग्रथों व अच्छी पुस्तकों का सान्निध्य हमारा यथोचित मार्गदर्शन करता है। हां!

सबसे बड़ी है, मानव की सोच अर्थात् जो मानव सोचता है, वही उसके चेहरे से परिलक्षित होता है और व्यवहार आपके कार्यों में झलकता है। इसलिए अपने हृदय में दैवीय गुणों स्नेह, सौहार्द, त्याग, करूणा, सहानुभूति आदि भावों को पल्लवित होने दीजिए… ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर की भावना से दूर से सलाम कीजिए क्योंकि सत्य की राह का अनुसरण करने वाले की राह में अनगिनत बाधाएं आती हैं। परंतु वह उस स्थिति में अपना धैर्य नहीं खोता, दु:खी नहीं होता, बल्कि उनसे सीख लेता है तथा अपने भविष्य को सुखमय बनाता है। वह सदैव शांत भाव में रहता है, क्योंकि सुख-दु:ख तो अतिथि हैं… जो आया है, अवश्य जाएगा। सो! आने वाले की खुशी व जाने वाले का ग़म क्यों? इंसान को हर स्थिति में सम रहना चाहिए अर्थात् दु:ख आपको विचलित न करें और सुख आपको सत्मार्ग पर चलने में बाधा न बनें तथा अब गलत राह का अनुसरण न करने दे। क्योंकि पैसा व पद-प्रतिष्ठा मानव को अहंवादी बना देता है और उसमें उपजा सर्वश्रेष्ठता का भाव उसे अमानुष बना देता है। वह निपट स्वार्थी हो जाता है और केवल अपनी सुख-सुविधा के बारे में सोचता है। इसलिए वहां यश व लक्ष्मी का निवास स्वतःहो जाता है। जहां सत्य है, वहां धर्म है, यश है और वहां लक्ष्मी निवास करती है। जहां शांति है, सौहार्द व सद्भाव है, वहां मधुर व्यवहार व समर्पण भाव है। इसलिए मानव को कभी भी झूठ का आश्रय नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह सब बुराइयों की जड़ है। मधुर व्यवहार द्वारा आप करोड़ों दिलों पर राज्य कर सकते हैं…सबके प्रिय बन सकते हैं। लोग आपके साथ रहने व आपका अनुसरण करने में स्वयं को गौरवशाली व भाग्यशाली समझते हैं। सो! शब्द ब्रह्म है…उसकी सार्थकता को स्वीकार कर जीवन में धारण करें और सबके प्रिय व सहोदर बनें। निष्कर्षत: हमारी सोच, हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारे भाग्य-निर्माता हैं और हमारी  ज़िंदगी के प्रणेता हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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