डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  पुराना दोस्त  । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 190 ☆

☆ व्यंग्य ☆ पुराना दोस्त 

‘हेलो, गुल्लू बोलता का?’

‘यहाँ कोई गुल्लू नहीं है। रांग नंबर।’

‘थम्मा, थम्मा। क्या तुम मिस्टर जी सी वर्मा के मकान से नईं बोलते?’

‘हाँ, वहीं से बोलता हूँ।’

‘तो मेरे को मिस्टर गुलाबचंद से बात कराओ न।’

‘मैं गुलाबचंद बोल रहा हूं।’

‘अर्रे गुल्लू, कैसा है भाई?’

‘आप कौन?’

‘सोच तो। मैं कौन?’

‘नहीं समझा।’

‘अर्रे मैं गुप्पी, गोपीनाथ। हम 1968 में साथ साथ धन्नालाल स्कूल में पढ़ते थे। तू मेरे को भूल गया, लेकिन मैं तेरे को नहीं भूला। मैं पुराने दोस्तों को कब्भी नईं भूलता।’

‘सॉरी, मुझे कुछ याद नहीं। अभी क्या कर रहे हो?’

‘नाप-तौल इंस्पेक्टर हूँ। दुकानदारों से वसूली करता हूँ। मज़े में हूँ’।’

‘इस शहर में कब से है?’

‘पन्द्रह साल से।’

‘इत्ते साल में कभी फोन नहीं किया?’

‘क्या बताऊँ! कई बार सोचा, लेकिन हो नहीं पाया। चलो, अब भूल सुधार लेते हैं। डिनर पर घर आ जाओ। कब आ सकते हो?’

‘ऑफिस आ जाओ। बैठ के बात कर लेते हैं।’

‘ठीक है। बाई द वे, अखबार में तुम्हारे ऑफिस का विज्ञापन देखा था, ऑफिस असिस्टेंट के लिए।’

‘निकला था।’

‘मेरे तीसरे बेटे, यानी तुम्हारे भतीजे लट्टू ने बताया। उसकी बड़ी इच्छा है तुम्हारे अंडर में काम करने की। कह रहा था जब चाचाजी हैं तो होइ जाएगा।’

‘अभी क्या करता है?’

‘समाज सेवा। मुहल्ले में बहुत पापुलर है। पुलिसवाले उसके बारे में उल्टा-सीधा बोलते हैं, लेकिन वह बहुत अच्छा लड़का है।’

‘नहीं हो पाएगा। एक आदमी पहले से काम कर रहा है। उसी को रेगुलर करने के लिए विज्ञापन निकाला है।’

‘उसे लटका रहने दो। पहले भतीजे को ले लो। आपकी सेवा करेगा।’

‘आई एम सॉरी। नहीं हो पाएगा।’

‘अरे, क्या सॉरी! आप चाहो तो सब हो सकता है। न करना हो तो बात अलग है। फालतू तुमको बोला।’

‘इसे छोड़ो। यह बताओ कि ऑफिस कब आ रहे हो?’

‘काए को?’

‘वो तुम डिनर विनर की बात कर रहे थे।’

‘उसके बारे में बताऊँगा। वाइफ से पूछना पड़ेगा।’

‘तो वैसेइ आ जाओ। पुराने दिनों की बातें करेंगे।

‘अरे गोली मारो पुराने दिनों को। अभी तो दम लेने की फुरसत नहीं है। अच्छा तो गुडबाय।’

‘गुडबाय।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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