श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डा अलका अग्रवाल जी के उपन्यास “मेरी तेरी सबकी” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 136 ☆

☆ “मेरी तेरी सबकी” – डा अलका अग्रवाल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कृति : मेरी तेरी सबकी

लेखिका : डा अलका अग्रवाल

प्रकाशक: ज्ञान मुद्रा प्रकाशन, भोपाल

मूल्य: २५० रुपये

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

सार्वजनिक विसंगतियों पर प्रायोगिक प्रहार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

डा अलका अग्रवाल का पहला व्यंग्य संग्रह “मेरी तेरी सबकी” पढ़ा. ज्ञान मुद्रा प्रकाशन, भोपाल से बढ़िया गेटअप में आये इस संग्रह पर मेरी प्रथम आपत्ति तो लेखिका के नाम के साथ डा की उपाधि न लगाये जान को लेकर है. उल्लेखनीय है कि श्रीमती अलका अग्रवाल को हाल ही मुम्बई विश्वविद्यालय ने व्यंग्य पुरोधा हरिशंकर परसाई जी पर उनके शोध कार्य के लिये पी एच डी की उपाधि प्रदान की है. अतः इस व्यंग्य के ही संग्रह के आवरण पृष्ठ पर डा अलका अग्रवाल लिखा जाना तर्क संगत है. निश्चित ही किताबें लेखक के नाम और अपने चित्ताकर्षक आवरण से प्रथम दृष्ट्या पाठको को आकर्षित करती ही हैं.

जब हम मेरी तेरी सबकी हाथ में उठाते हैं, अलटते पलटते हैं तो हमें समकालीन सुस्थापित व्यंग्य के हस्ताक्षर श्री हरीश नवल, अलका अग्रवाल के लेखन को युग धर्म के अनूकूल निरूपित करते हैं. तरसेम गुजराल ने लिखा है कि ये व्यंग्य सरोकार से जुड़े हुये हैं. प्रसिद्ध व्यंग्य समालोचक सुभाष चंदर लिखते हैं कि यह संग्रह परसाई परंपरा का लेखन है. सूर्यबाला जी ने लिखा है कि विषय के अनूकूल भाषाई बुनाव अलका जी की लेखनी में है. सुधा अरोड़ा ने संग्रह को असरकारक बताया है तो स्नेहलता पाठक ने अलका के लेखन को आम जनता के जीवन का संघर्ष बताया है. विवेक अग्रवाल ने किताब के शीर्षक लेख से पांच बंदरो के सबक की चर्चा की है. इन सात संतुतियों के बाद स्वयं अलका अग्रवाल ने अपनी बात में लिखा है कि ” व्यंग्य का मतलब केवल विरोध हरगिज़ नहीं होता, बल्कि रचनात्मक विध्वंस होता है। मैं कब व्यंग्य लिखती हूं? जब भी कोई विसंगति सालने लगती है। बेशक राजनीति हम सबके जीवन में अहम स्थान रखती है। राजनीति का अर्थ केवल वोट, कुर्सी, शासन ही नहीं होता। रिश्तों में, दोस्ती में, न जाने कहां-कहां राजनीति ने अपने पैर पसारे हुए हैं। माप- तौल कर ही रिश्ते बनाए जाते हैं। यह सबसे बड़ी विसंगति है। इतना हमेशा चाहती हूं कि नेताओं की राजनीति को देखने की क्षीर-नीर दृष्टि मिलती रहे।”. उनकी यह दृष्टि ही संग्रह को महत्वपूर्ण बना रही है.

मैंने अलका अग्रवाल को बहुत पहले से पढ़ा है उनके लेखन परिवेश, तथा भाव विस्तार से सुपरिचित हूं और उनके व्यंग्य संग्रह पर बहुत कुछ लिख सकता हूं. इन मूर्धन्य रचनाकारों की विस्तृत समीक्षाओ के बाद मेरा काम बड़ा सरल हो गया है. १४० पृष्ठीय इस संग्रह में कुल २५ व्यंग्य लेख समाहित हैं. अलका जी का लेखन परसाई जी से प्रभावित है. संग्रह के व्यंग्य साधो ये जग क्यों बौराना, साध़ो, सोच फटी क्यों रे ? जैसे शीर्षक ही इसकी बानगी देते हैं. व्यंग्य की तीक्ष्णता के साथ विषय में किंचित हास्य का समावेश करना और लेखन के प्रवाह में विषय से न भटकना एक बड़ी कला होती है. लेखन के निर्वाह की यह कला इस किताब में पढ़ने मिलती है.

वे बेचारे, इच्छा मृत्यु ले लो, ये कौन सा पसीना?, भगवान इनकी झोली…, नज़र बदलो नज़रिया बदलो, कैसे उठाऊँ गांडीव ?, बोध ज्ञान आदि वे व्यंग्य हैं जिनमें पौराणिक प्रचलित प्रतीकों का अवलंबन लेकर उत्तम तरीके से अपनी बात कही गई है. कोरोना काल की रचना तलब-लगी जमात में लेखिका ने लाकडाउन जनित स्थितियों का मनोरंजक कटाक्ष पूर्ण वर्णन किया है, अपने कहन में बीच बीच में काव्य उद्वरण का सहारा भी लिया है. नोट, नोटा और लोटा, ड्रैगनफ्लाय, ये तो फेसबुकिया गई हैं, चमकेश वॉरियर्स, बिन डेटा सब सून, व्हॉट्सऐप बाबा की जय, समकालीन नये विषयों की रचनायें हैं, जिनका निर्वाह, विसंगतियों को पकड़ कर पाठक के मन तक पहुंचने में लेखिका कामयाब हुई हैं. पुस्तक का शीर्षक व्यंग्य तेरी मेरी सबकी एक अच्छा व्यंग्य है. इसमें अलका लिखती हैं..

” दिमाग की बत्ती थी कि जल ही नहीं रही थी, इतने में छोटी सी एक बत्ती कहीं जली और उन्हें कुछ खुसुर-पुसुरसुनाई देने लगी‌। दरवाज़े की झिरी से देखा तो आंखें फटी की फटी रह गईं। देखते क्या हैं कि गांधीजी के बंदर अब मिट्टी के माधो नहीं बल्कि चल-फिर रहे हैं, बात भी कर रहे हैं। पर यह क्या, बंदर तीन की जगह पांच कैसे हो गए!!? क्या तीन-पांच चल रही है?

बंदरों को पता नहीं था कि अवसरवादी नेताजी वहां घात लगाए बैठे हैं। उनमें से एक बोला, “यारों ये अवसरवादी कितना धूर्त है! एक तरफ गांधीजी के हत्यारे की जयंती मनाता है, और गांधी जयंती पर कल राजघाट पर फूल चढ़ाने आया था।”

अलका जी की विशेषता है कि वे अपने व्यंग्य लेखन में कभी स्वप्न में परसाई जी से मिलकर बतियाती हैं, तो कभी गांधी जी के बंदरो को जीवित करके उनसे संवाद करती हैं, कभी भगवान और भक्त की मुलाकातें करवा देती हैं.

घोटाला महोत्सव मनाओ सब मिल!, ब से बड़े आदमी, अथ श्री पति-पत्नी कथा, पुल उतारेंगे भव सागर के पार, खोजीं हो तो तुरत ही मिलिहों…, हम होंगे कामयाब! पर…, कविवर महोदय की टंगाटोली, ईससुरी जीएसटी जैसे

मजेदार लेखों का संग्रह है मेरी तेरी सबकी, जिसमें सार्वजनिक विसंगतियों पर प्रायोगिक प्रहार किया गया है. मेरी लेखिका को उनके इस पहले संग्रह पर हार्दिक बधाई. व्यंग्य जगत को अलका अग्रवाल से और बहुत कुछ की अपेक्षायें हैं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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