श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका कीhttps://www.e-abhivyakti.com/wp-admin/post.php?post=53412&action=edit# प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “शठे शाठ्यं समाचरेत्…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ शठे शाठ्यं समाचरेत्… ☆
अक्सर लोग शीर्ष पर पहुँचने की चाहत में अपनों का साथ खो देते हैं, और जब उल्लास का समय आता है तो बनावटी भीड़ इक्कठी करके उत्सव मनाने लगते हैं।
क्या आपने कभी गौर किया कि वास्तविक शुभचिंतक व अवसरवादी शुभचिंतक में क्या अंतर है। ऐसे लोग जो सामने कड़वा बोलकर रास्ता दिखाते हैं वे ही हमारा हित चाहते हैं। अतः ऐसे रास्तों का चुनाव करें जो सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास पर आधारित हो जिससे सबका कल्याण हो।
कहते हैं जैसी सोच होगी वैसे ही परिणाम मिलेंगे। हमेशा देखा जाता है कि सामान्य लोग कई बार ऐसे कार्य कर बैठते हैं, जो बड़े- बड़े लोगों द्वारा भी सम्भव नहीं होता। उसका कारण भाग्यशाली होना नहीं होता वरन ये सब उनकी इच्छा शक्ति का कमाल होता है, जो उन्होंने ऐसे विचारों को अपनाकर न केवल कल्पना के घोड़े दौड़ाए वरन उसे अमलीजामा भी पहनाया और समाज के प्रेरक बन कर उभरे।
किसी से सम्बन्ध बनाना जितना सरल होता है, उसका निर्वहन उतना ही कठिन होता है। हर मुद्दे पर सबकी राय एक नहीं हो सकती तब कार्य के दौरान खासकर प्रशासकीय कार्यों में मतभेद पनपने लगते हैं और गुटबाजी के रूप में लोग मजबूत व्यक्ति की ओर झुक जाते हैं जिसका असर सुखद नहीं होता है।कार्य की गुणवत्ता धीरे- धीरे कम होने लगती है। समय पास ही साधन और साध्य बनकर उभरता है।
कटु वचन और धूर्तता पूर्ण व्यवहार सबको समझ में आता है पर लोग विरोध नहीं करते क्योंकि वे सोचते हैं यदि मेरे साथ ऐसा होगा तब देखा जायेगा और इसी चक्रव्यूह में एक एक कर सारे सम्बन्ध दम तोड़ देते हैं। इस सम्बंध में संस्कृत की ये कहावत तर्क संगत प्रतीत होती है-
कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्विंसिते प्रतिहिंसितम्।
तत्र दोषं न पश्यामि शठे शाठ्यं समाचरेत् ॥
(विदुर नीति)
अर्थात जो जैसा करे उसके साथ वैसा ही व्यवहार करो। खग जाने खग ही की भाषा। महाभारत इसी को आधार मानते हुए अधर्म पर धर्म का युद्ध था।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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