श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बिनु पद चले, सुने बिनु काना…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ बिनु पद चले, सुने बिनु काना… ☆
प्रकृति ने हर मौसम के लिए अलग- अलग रंग संयोजित किए हैं, किंतु उत्साह का तो एक ही रंग होता है जिसकी चमक सब बयां कर देती है। नेह की भावना जहाँ अपनों को जोड़ कर रखती है वहीं बिन बोले ही वो कह जाती है जो सामने वाला हमसे चाहता है।
आकर्षण, घर्षण, विकर्षण सारे ही व्यवहार में देखने को मिलते हैं, बस ये हमें चयन करना है कि हम किसके साथ चल सकते हैं।
शिखर की चाह में एक -एक कर सबको हटाते जाना फिर जोड़ने की कोशिश करना ; इन्हीं स्थितियों के लिए रहीम दास जी का ये दोहा प्रासंगिक है –
रहिमन माला प्रेम की, जिन तोड़ो चटकाय।
जोड़े से फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।।
पर कोई बात नहीं जैसे ही व्यक्ति सफल होता है, उसे अनेको लोग मिल जाते हैं, उसके प्रशंसक ; ऐसी दशा में क्या जरूरत है ; अड़ंगेबाजों को सिर पर चढ़ाने की ?
परन्तु दूसरी ओर ये बात भी ध्यान रखने योग्य है –
रूठे स्वजन मनाइये, जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिर फिर पोइये, टूटे मुक्ता हार।।
इस दोहे में रहीम दास जी ने स्वयं कहा है रूठे स्वजन को मनाइए, हम सभी मनाते हैं ; लेकिन केवल ऐसे लोगों को जो हमारे लिए उपयोगी होते हैं। असली मोती का हार तो हम नये धागे में पिरो कर सजो लेते हैं; किंतु सामान्य मोती को धागा टूटते ही फेंक देते हैं।ये बात जीवन के सभी क्षेत्रों में लागू होती है। उपयोगी को सहेजो अनुपयोगी को बाहर करो। जोड़- तोड़ के इस चक्कर में जाने अनजाने गलतियाँ होने लगती है। गलतियों से सबक लेना जिसको आ गया या बिगड़ी बात को अपने पाले में पुनः कर लेने की कला जिसको आ गयी समझो वो बाजी जीत ही लेगा।
जीत- हार भले ही एक सिक्के के दो पहलू हों किन्तु विजेता का ताज धारण करने की इच्छा ही समस्त जगत का मूल मंत्र होता है। करते चलो, बढ़ते चलो बस रुकना नहीं चाहिए जब तक मंजिल आपके कदमों तक न आ जाए। इसी क्रम में ये ध्यान रखने की बात है कि-
कछु कहि नीच न छेड़िए, भलो न वाको संग।
पाथर डारे कीच में, उछलि बिगारत अंग।।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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