डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘मोहपाश ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 117 ☆
☆ लघुकथा – मोहपाश ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
मम्मी ! ‘जी पे’ का नंबर बताओ!
क्यों? किसलिए?
पैसे चाहिए और क्या?
सब चीजें तो हैं घर में, अब तुम्हें क्या खरीदना है?
तुम्हें पता है ना कि अब मेरी पेंशन से ही काम चलाना है। तेरी नौकरी अभी तक नहीं लगी है और मुझे मानसी की शादी के लिए भी पैसे बचाने हैं।
वह तुम्हारी जिम्मेदारी है, तुम जानो। ‘पिन’ बता रही हो कि नहीं – बेटा तेजी से लगभग डाँटते हुए बोला।
उसकी तेज आवाज ने उसे कँपा दिया, कुछ वैसे ही जैसे पति का शव सफेद कपड़े में लिपटा देख वह काँपी थी। उसने दोनों बच्चों को बाँहों के घेरे में कसकर जकड़ लिया था। रेशमी धागों की यह जकड़न बच्चों के बड़े होने के साथ-साथ बढ़ती ही गई। जीवन के हर मोड़ पर रेशमी धागों की एक और गाँठ जुड़ जाती। वह समझती रही कि उसकी बाँहों के ये घेरे बच्चों को हर तरह से संभाले हैं पर ———- मंदिरों में बँधे मनौतियों के धागे भी ना जाने कितनों की मन्नतों को अपने में समेटे समय के साथ बेरंग हो जाते हैं।
‘पिन’ बताती क्यों नहीं मम्मी!
हैं — हूँ – उसने चौंककर बेटे की ओर देखा, वह समझ ही ना सकी रेशम की डोर कब जानलेवा रस्सियों में बदल गई।
©डॉ. ऋचा शर्मा
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