प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित ग़ज़ल – “रूख बदलता जा रहा है…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #131 ☆ ग़ज़ल – “रूख बदलता जा रहा है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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ले रहा करवट जमाना मगर आहिस्ता बहुत।
बदलती जाती है दुनियाँ मगर आहिस्ता बहुत।।
कल जहां था आदमी है आज कुछ आगे जरूर
फर्क जो दिखता है, आ पाया है आहिस्ता बहुत।
सैकड़ों सदियों में आई सोच में तब्दीलियां
हुई सभी तब्दीजियां मुश्किल से आहिस्ता बहुत।
गंगा तो बहती है अब भी वहीं पहले थी जहां
पर किनारों के नजारे बदले आहिस्ता बहुत।
अंधेरे तबकों में बढ़ती आ चली है रोशनी
पर धुंधलका छंट रहा है अब भी आहिस्ता बहुत।
रूख बदलता जा रहा है आदमी अब हर तरफ
कदम उठ पाते हैं उसके मगर आहिस्ता बहुत।
निगाहों में उठी है सबकी ललक नई चाह की
सलीके की चमक पर दिखती है आहिस्ता बहुत।
मन ’विदग्ध’ तो चाहता है झट बड़ा बदलाव हो
गति सजावट की है पर हर ठौर आहिस्ता बहुत।
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© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी भोपाल ४६२०२३
मो. 9425484452
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈