डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘मल्लू का ड्रॉइंग-कम-डाइनिंग रूम’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य ☆ मल्लू का ड्रॉइंग-कम-डाइनिंग रूम ☆
मल्लू ने मकान बनवाया। इंजीनियर साहब ने कहा बीस लाख में तुम्हें मकान में घुसा देंगे, लेकिन मल्लू पच्चीस लाख से ज़्यादा से उतर गया। बैंक के कर्ज़ के अलावा और कई लोगों का कर्ज़ चढ़ गया। कई गलियों से मल्लू का निकलना बन्द हो गया।
आदमी की यह प्रकृति होती है कि किराये का मकान जैसा भी सड़ा- बुसा हो, उसमें वह बीसों साल बिना शिकायत के रह लेता है, लेकिन अपना मकान बनाते ही उसकी सारी हसरतें जाग जाती हैं। अपने ख्वाबों को पूरा करने का चक्कर शुरू हो जाता है और फिर सलाहकारों की भी लाइन लग जाती है। नतीजा यह होता है कि मकान बनाने वालों को लंबा चूना लगता है। मकान चमकाने के चक्कर में चेहरे की रौनक ख़त्म हो जाती है। मकान तो तीस साल में खंडहर होता है, आदमी पाँच साल में खंडहर हो जाता है।
मल्लू के इंजीनियर साहब ने नक्शा बनाया। मल्लू ने नक्शा देखा तो इंजीनियर साहब से पूछा, ‘यह इतना बड़ा कमरा किसलिए है?’
इंजीनियर साहब ने मल्लू को समझाया, ‘यह ड्रॉइंग-कम-डाइनिंग रूम है।’
मल्लू बोला, ‘मतलब?’
‘मतलब यह कि यह बैठक भी है और खाने का कमरा भी।’
मल्लू ने पूछा, ‘बैठक और खाने का कमरा एक साथ मिलाने से क्या फायदा?’
इंजीनियर साहब ने परेशानी में सिर खुजाया, फिर बोले ‘आजकल यही फैशन है।’
मल्लू आसानी से समझने वाले आदमी नहीं थे। बोले, ‘फैशन तो ठीक है, लेकिन इनको मिलाने की ज़रूरत क्या है?’
इंजीनियर साहब खिसियानी हँसी हँसे, बोले, ‘इस तरह आपको एक बड़ा हॉल मिल जाएगा तो वक्त ज़रूरत पर काम आएगा।’
मल्लू बोले, ‘बड़े हॉल की क्या ज़रूरत पड़ेगी?’
इंजीनियर साहब अब पस्त हो रहे थे। बोले, ‘कभी फंक्शन के काम आएगा, शादी ब्याह वगैरह में।’
मल्लू बोले, ‘मेरी शादी तो हो गयी। नट्टू अभी आठ साल का है। उसकी शादी में सत्रह अट्ठारह साल लगेंगे। किसकी शादी होनी है?’
इंजीनियर साहब हार गये, बोले, ‘अरे तो कभी हम लोगों को बुलाकर ही जश्न मना लीजिएगा।’
बल्लू की समझ में नहीं आया, लेकिन इंजीनियर साहब की ज़िद के चलते ड्रॉइंग कम डाइनिंग रूम बन गया। अब कमरे में एक तरफ मल्लू का पुराना सोफा था और दूसरी तरफ उनकी पुरानी डाइनिंग-टेबिल। नये घर में पुराना सोफा और पुरानी डाइनिंग-टेबिल वैसे भी आँखों में गड़ते थे। डाइनिंग-टेबिल की छः कुर्सियों में से दो की टाँगें टूट गयी थीं और नट्टू ने उनके विकेट बना लिये थे।
मकान बनाने के बाद मल्लू ने महसूस किया ड्रॉइंग-रूम और डाइनिंग-रूम एक साथ रखने के लिए घर में बहुत सी चीजे़ं दुरुस्त होनी चाहिए। जो लोग बैठक में बैठते थे वे डाइनिंग-टेबिल की टीम-टाम भी देखते थे।
नट्टू पूरी टेबिल पर और ज़मीन पर खाना गिरा देता था। मल्लू अक्सर खाना खाते वक्त कुर्सी पर पालथी मार लेता था। अब बाहर किसी की आहट सुनायी पड़ते ही उसकी टाँगें अपने आप नीचे आ जाती थीं। उसकी बीवी उसकी इस आदत को लेकर अक्सर उसकी लानत- मलामत करती रहती थी।
घर में टेबिल-मैनर्स की क्लासें चलने लगी थीं। मल्लू की बीवी उसे बताती कि खाना खाते वक्त उसके मुँह से ‘चपड़-चपड़’ आवाज़ निकलती थी। नट्टू को भी डाँट-डाँट कर खाने का ढंग सिखाया जाता। ड्रॉइंग-रूम डाइनिंग-रूम पर सवार हो गया था।
खाने के बर्तन नट्टू ने पटक-पटक कर चपटे कर दिये थे। अब उन बर्तनों में खाते शर्म आती थी क्योंकि कभी भी कोई अतिथि प्रकट हो जाता था। अगर कोई अतिथि महोदय भोजन के समय आकर बैठक लगा लेते तो भोजन तब तक मुल्तवी रहता जब तक वे विदा न हो जाते। घर में डोंगे नहीं थे। अब उन्हें खरीदने की ज़रूरत महसूस हुई।
खाने के स्तर को लेकर चिन्ता होने लगी। जब घर में सिर्फ खिचड़ी या दाल-रोटी बनती तो चिन्ता लगी रहती कि कोई मेहमान देखने के लिए न आ जाए। फ्रिज की ज़रूरत भी महसूस होने लगी ताकि डाइनिंग-रूम कुछ रोबदार बन सके। लेकिन मकान के कर्ज़ ने मल्लू की कमर तोड़ रखी थी। वैसे भी मल्लू और उसकी बीवी के संस्कार मध्यवर्गीय थे। सामने कोई मेहमान आ कर बैठ जाता तो निवाला उनके हलक में अटकने लगता। इसीलिए जब खाना खाते वक्त कोई मेहमान आ जाता तो दोनों प्लेटें उठाकर भीतर की तरफ भागते। मेहमान भीतर घुसता तो उसे डाइनिंग-टेबिल खाली मिलती। फिर जब तक मल्लू मेहमान से बात करता तब तक उसकी बीवी भीतर पलंग पर बैठकर खाना खाती।जब वह खाना खा चुकती तो वह बाहर आकर मेहमान से बातें करती और मल्लू भीतर बैठकर भोजन करता।
अन्ततः मल्लू आपने डाइनिंग-कम- ड्रॉइंग रूम से तंग आ गया। इस विषय पर मियाँ-बीवी की कॉन्फ्रेंस हुई। यह तय हुआ कि हज़ार दो हज़ार रुपये खर्च करके ड्रॉइंग-रूम और डाइनिंग-रूम के बीच पर्दा डाल दिया जाए। पर्दा ज़रूर कुछ ढंग का हो क्योंकि मेहमान डाइनिंग-टेबिल की जगह अब पर्दे की जाँच-पड़ताल करेगा।
एक शुभ दिन पर्दा खरीद कर ड्रॉइंग- रूम और डाइनिंग-रूम के बीच बँटवारा कर दिया गया और मल्लू को अपनी परेशानियों से निजात मिली। अब मल्लू फिर आराम से कुर्सी पर पालथी मारकर खाना खा सकता था। नट्टू पर पड़ने वाली डाँट भी कम हो गयी। अब मल्लू का डाइनिंग-रूम उसके ड्रॉइंग-रूम के आतंक से मुक्त हो गया।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈