डॉ. मुक्ता
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मूर्खों के पांच लक्षण। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 184 ☆
☆ मूर्खों के पांच लक्षण ☆
‘मूर्खों के पांच लक्षण हैं:–गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बात का अनादर।’ वाट्सएप के इस संदेश ने मुझे इस विषय पर लिखने को विवश कर दिया, क्योंकि सत्य व यथार्थ सदैव मन के क़रीब होता है; भावनाओं को झकझोरता है और चिंतन- मनन करने को विवश करता है। सामान्यत: यदि कोई अटपटी बात करता है; अपना पक्ष रखने के लिए व्यर्थ की दलीलें देता है; अपनी विद्वत्ता का बखान करता है; बात-बात पर अकारण क्रोधित होता है तथा दूसरों की पगड़ी उछालने में पल-भर भी नहीं लगाता..उसे अक्सर मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है, क्योंकि वह दूसरों की बातों की ओर तनिक भी ध्यान अथवा तवज्जो नहीं देता…सदैव अपनी-अपनी हांकता है। वैसे नास्तिक व्यक्ति भी परमात्म-सत्ता में विश्वास नहीं रखता और वह स्वयं को सर्वज्ञ, सर्वज्ञानी व सर्वश्रेष्ठ समझता है। वास्तव में ऐसा प्राणी करुणा अथवा दया का पात्र होता है। आइए! विचार करें, मूर्खों के पांचों लक्षणों पर… परंतु जो इन दोषों से मुक्त हैं– ज्ञानी हैं, विद्वान हैं, श्रद्धेय हैं, उपास्य हैं।
गर्व, घमण्ड व अभिमान मानव के सर्वांगीण विकास में बाधक हैं और अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो भौतिक व आध्यात्मिक विकास में बाधक है। वास्तव में अहं गर्व-सूचक है … आत्म-प्रवंचना व आत्म-श्लाघा का, जो मानव की नस-नस में व्याप्त है, परंतु वह परमात्मा द्वारा प्रदत्त नहीं है। दूसरे शब्दों में आप उन सब गुणों-खूबियों का बखान करते हैं, जो आप में नहीं हैं और जिसके आप योग्य नहीं है। दूसरे शब्दों में इसे अतिशयोक्ति भी कहा जाता है। इसका दूसरा भयावह पक्ष यह है कि जो आपके पास है, उसके कारण आप अहंनिष्ठ होकर स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, दूसरों को नीचा दिखाते हैं; उनकी भावनाओं को रौंदते हुए, उन पर आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं– जो सर्वथा अनुचित है। अहंभाव मानव को सबसे अलग-थलग कर देता है, जिसके परिणाम-स्वरूप वह एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होता है। सब उसे शत्रु-सम भासते हैं और जो भी उसे सही राह दिखाने की चेष्टा करता है; जीवन के सत्य व कटु यथार्थ से परिचित कराना चाहता है; उसकी कारस्तानियों से अवगत कराना चाहता है–वह उस पर ज़ुल्म ढाने से गुरेज़ नहीं करता। जब इस पर भी उसे संतोष नहीं होता, तो वह उसके प्राण लेकर सूक़ून पाता है। इसलिए वह अपने अहंभाव के कारण आजीवन सत्मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाता।
अपशब्द अर्थात् बुरे शब्द अहंनिष्ठता का परिणाम हैं, क्योंकि क्रोध व आवेश में वह मर्यादा को ताक़ पर रख व सीमाओं को लांघकर अपनी धुन में ऊल- ज़लूल बोलता है…सबको अप-शब्द कहता है, गाली -गलौच पर उतर आता है। वह भरी सभा में किसी पर भी झूठे आक्षेप-आरोप लगाने व वह नीचा दिखाने के लिए हिंसा पर उतारू हो जाता है। जैसा कि सर्वविदित है– बाणों के घाव तो कुछ समय पश्चात् भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। द्रौपदी का ‘अंधे की औलाद अंधी’ वाक्य महाभारत के युद्ध का कारण बना। ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है इतिहास… सो! ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ को सिद्धांत रूप में अपने जीवन में उतार लेना ही श्रेयस्कर है। आप किसी को अपशब्द बोलने से पूर्व स्वयं को उसके स्थान पर तराज़ू में रखकर तोलिए और यदि वह उस कसौटी पर ख़रा उतरता है–तो उचित है; वरना उन शब्दों का प्रयोग कदाचित् मत कीजिए, क्योंकि वे शब्द-बाण कभी भी आपके गले की फांस बन सकते है।
प्रश्न उठता है कि अपशब्द का मूल क्या है? किन परिस्थितियों व कारणों से वे जन्म लेते हैं; अस्तित्व में आते हैं। सो! इनका जनक है क्रोध और क्रोध चांडाल होता है, जो बड़ी से बड़ी आपदा का सब कुछ जानते हुए भी आह्वान करता है। वह सबको एक नज़र से देखता है; एक ही लाठी से हांकता है; सभी सीमाओं का अतिक्रमण करता है। मर्यादा शब्द तो उसके शब्दकोश के दायरे से बाहर रहता है।
परशुराम का क्रोध में अपनी माता की हत्या कर देना, तो सर्वविदित है। क्रोध के परिणाम सदैव भीषण व भयंकर होते हैं। सो! मानव को इसके चंगुल से बाहर रहने का सदैव प्रयास करना चाहिए।
हठ…हठ अथवा ज़िद का प्रणेता है क्रोध। बाल-हठ से तो आप सब अवगत होंगे। बच्चे किसी पल, कुछ भी करने व किसी वस्तु को पाने का हठ कर लेते हैं; जिसे पूरा करना असंभव होता है। परंतु उन्हें बात बदल कर,व अन्य वस्तु देकर बहलाया जा सकता है। सो! इससे किसी की भी हानि नहीं होती, क्योंकि बाल-मन तो कोमल होता है …राग-द्वेष से परे होता है। परंतु यदि कोई मूर्ख व्यक्ति हठ करता है, तो वह पूरे समाज को विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। उसे समझाने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं होती, क्योंकि हठी व्यक्ति जो ठान लेता है, लाख प्रयास करने पर भी वह टस-से-मस नहीं होता। अंत में वह उस मुक़ाम पर पहुंच जाता है, जहां वह अपनी सल्तनत तक को अपने हाथों जला अथवा नष्ट कर तमाशा देखता है और उस स्थिति में स्वयं को हरदम नितांत अकेला अनुभव करता है, क्योंकि उसके सुंदर स्वप्न जल कर राख हो चुके होते हैं।
मूर्ख व्यक्ति दूसरों का अनादर करने में पल-भर भी नहीं लगाता, क्योंकि वह अहं व क्रोध के शिकंजे में इस क़दर जकड़ा होता है कि उससे मुक्ति पाना उस के वश में नहीं होता। वह सृष्टि-नियंता के अस्तित्व को नकार, स्वयं को बुद्धिमान व सर्वशक्तिमान
स्वीकारता है और उसके मन में यह प्रबल भावना घर कर जाती है कि उससे अधिक ज्ञानवान् इस संसार में कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। सो! वह अपनी अहं-तुष्टि ही नहीं, अहं-पुष्टि हेतु क्रोध के आवेश में हठपूर्वक अपनी बात मनवाना चाहता है, जिसके लिए वह अमानवीय-कृत्यों तक का सहारा भी लेता है। ‘बॉस इज़ ऑलवेज़ राइट’ अर्थात् बॉस अथवा मालिक सदैव ठीक होता है तथा कोई ग़लत काम कर ही नहीं सकता अर्थात् ग़लत शब्द उसके शब्दकोश की सीमा से बाहर रहता है। वह निष्ठुर प्राणी कभी भी अनहोनी कर गुज़रता है, क्योंकि उसे अंजाम की परवाह नहीं होती ही नहीं।
यह थे मूर्खों के पांच लक्षण…वैसे तो इंसान ग़लतियों का पुतला है। परंतु यह वे संचारी भाव हैं, जो स्थायी भावों के साथ-साथ, समय-समय पर प्रकट होते हैं, परंतु शीघ्र ही इनका शमन हो जाता है। यह कटु सत्य है कि जो भी जीवन में इन्हें धारण कर लेता है अथवा अपना लेता है… उसे मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। वह घर-परिवार के लोगों का जीना भी दूभर कर देता है तथा उन सबको अपना विरोधी स्वीकारते हुए, अपना पक्ष रखने का अवसर व अधिकार ही कहां प्रदान करता है? अपने पूर्वजों की धरोहर के रूप में रटे-रटाए चंद वाक्यों का प्रयोग; वह हिटलर की भांति किसी भी अवसर पर धड़ल्ले से करता है। हां! घर से बाहर वह प्रसन्न-चित्त रहता है; सदैव अपनी-अपनी हांकता है तथा किसी को बोलने अथवा अपना पक्ष रखने का अवसर ही प्रदान नहीं करता। परंतु चंद लम्हों में लोग उसकी फ़ितरत को समझ जाते हैं तथा उसके चारित्रिक गुणों से वाक़िफ़ हो जाते हैं। वे उससे निज़ात पा लेना चाहते हैं, ताकि कोई अप्रत्याशित हादसा घटित न हो जाए। वैसे परिवारजनों को सदैव यह आशंका बनी रहती है कि उस द्वारा बोला उच्चरित कोई वाक्य, कहीं उन सबके लिए बवाल व भविष्य में जी का जंजाल न बन जाए। वैसे ‘बुद्धिमान को इशारा काफी’ अर्थात् जो लोग उसके साथ रहने को विवश होते हैं, उनकी ज़िंदगी नरक-तुल्य बन जाती है। परंतु गले पड़ा ढोल बजाना उनकी विवशता होती है; जिसे सहर्ष स्वीकारना व अनुमोदन करना–उनकी नियति बन जाती है।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी
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