सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग छह – स्वर्ण मंदिर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 10 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग छह – स्वर्ण मंदिर  ?

(वर्ष 1994 -2019)

मेरे हृदय में गुरु नानकदेव जी के प्रति अलख जगाने का काम मेरे बावजी ने किया था। बावजी अर्थात मेरे ससुर जी, जिन्हें हम सब इसी नाम से संबोधित करते थे।

बावजी गुरु नानक के परम भक्त थे। यह सच है कि घर के मंदिर में गुरु नानकदेव की  कोई तस्वीर नहीं थी। वहाँ तो हमारी माताजी (सासुमाँ ) के आराध्या शिव जी विराजमान थे। लेकिन बावजी लकड़ी की अलमारी के एक तरफ चिपकाए गए  नानक जी की एक पुरानी तस्वीर के सामने खड़े होकर अरदास किया करते थे।

मुझे बहुत आश्चर्य होता था कि एक सिख परिवार में यह दो अलग-अलग परंपराएँ कैसे चली हैं ? पर उम्र कम होने की वजह से मैंने उस ओर कभी विशेष ध्यान ही नहीं दिया और दोनों की आराधना करने लगी। मैं शिव मंदिर भी जाती रही और बावजी से समय-समय पर नानक जी से जुड़ी अलग-अलग कथाएँ भी सुनती रही।

 धीरे – धीरे मन में गुरुद्वारे जाने की इच्छा होने लगी इस इच्छा को पूर्ण होने में बहुत ज्यादा समय ना लगा क्योंकि पुणे शहर के रेंज्हिल विभाग में जहाँ एक ओर स्वयंभू शिव मंदिर स्थित है वहीं पर गुरुद्वारा भी है। जब भी माथा टेकने की इच्छा होती मैं चुपचाप वहाँ चली जाया करती थी। अब यही इच्छा थोड़ी और तीव्रता की ओर बढ़ती रही और मुझे अमृतसर जाने की इच्छा होने लगी। जीवन की आपाधापी में यह  इच्छा अन्य कई इच्छाओं की परतों के नीचे दब अवश्य गई लेकिन सुसुप्त रूप से वह कहीं बची ही रही।

अमृतसर की यात्रा का पहला अवसर मुझे 1994 मैं जाकर मिला। उन दिनों हम लोग चंडीगढ़ में रहते थे। संभवतः नानक जी मेरी भी श्रद्धा की परीक्षा ले रहे थे और उन्होंने मुझे इतने लंबे अंतराल के बाद दर्शन के लिए  अवसर दिया। फिर तो न जाने कहाँ – कहाँ नानक जी के दर्शन  का सौभाग्य  मुझे मिलता ही रहा,जिनका उल्लेख अपनी विविध यात्राओं में मैं कर चुकी हूँ। 1994 से  2019 के बीच न जाने कितनी ही बार अमृतसर दर्शन  करने का अवसर मिलता ही रहा है।ईश्वर की इसे मैं परम कृपा ही कहूँगी।मुझ जैसी बँगला संस्कारों में पली लड़की के हृदय में नानकजी घर कर गए। आस्था, भक्ति ने सिक्ख परंपराओं से जोड़ दिया।

1994 का अमृतसर अभी भी ’84 के घावों को भरने में लगा था। जगह – जगह पर पुरानी व टूटी फ़र्शियों को उखाड़ कर वहाँ नए संगमरमर की फ़र्शियाँ लगाई जा रही थीं। भीड़ वैसी ही बनी थी पर काम अपना चल रहा था। हम गए थे जनवरी महीने के संक्रांत वाले दिन यद्यपि यह त्यौहार घर पर ही लोग मनाते हैं फिर भी देव दर्शन के लिए मंदिरों में आना हिंदू धर्म,  सिख धर्म का एक परम आवश्यक हिस्सा है।

अमृतसर का विशाल परिसर देखकर आँखें खुली की खुली रह गई थीं। उसी परिसर के भीतर दुकानें लगी हुई थीं।पर आज सभी दुकानें बाहर गलियारों में कर दी गई  हैं और मंदिर के विशाल परिसर के चारों ओर ऊँची दीवार चढ़ा दी गई  है।

आज वहाँ भीतर नर्म घासवाला उद्यान आ गया है। 1919 जलियांवाला बाग कांड ,1947 देशविभाजन के समय के दर्दनाक दृश्य,  1984 के समय के विविध हत्याकांड तथा  अत्याचार आदि की तस्वीरों का एक संग्रहालय भी है। आज प्रवेश के लिए 12 प्रवेश द्वार हैं। वहीं चप्पल जूते रखने और नल के पानी से हाथ धोने की व्यवस्था भी है। स्त्री पुरुष सभी के लिए सिर ढाँकना अनिवार्य है।अगर किसी के पास सिर ढाँकने का कपड़ा न हो तो वहाँ के स्वयंसेवक नारंगी या सफेद कपड़ा देते हैं जिसे पटका कहते हैं। हर जाति, हर धर्म और हर वर्ण का व्यक्ति दर्शन के लिए आ सकता है। सर्व धर्म एक समान,एक ओंकार का नारा स्पष्ट दिखाई देता है।

मंदिर में प्रवेश से पूर्व  निरंतर पानी का बहता स्रोत है जो एक नाले के रूप में है,  हर यात्री पैर धोकर  और फिर बड़े से पापोश या पाँवड़ा पर पैर पोंछकर  मंदिर में प्रवेश करता है। ठंड के दिनों में यही पानी गर्म स्रोत के रूप में बहता है ताकि थके यात्री आराम महसूस करें।

पूरे परिसर में फ़र्श  के रूप में संगमरमर बिछा है। मौसम के बदलने पर फ़र्श गरम या ठंडी हो जाती है इसलिए  कालीन बिछाकर रखा जाता है ताकि यात्री आराम से चलकर दर्शन कर सकें। कई स्थानों में कड़ा प्रसाद निरंतर बाँटा  जाता है।यात्री प्रसाद खरीदकर भी घर ले जा सकते हैं। घी की प्रचुरता के कारण वह खराब नहीं होता।

स्वर्ण मंदिर को हरिमंदर साहब कहा जाता है। यहाँ एक छोटा सा तालाब है और उसके पास एक विशाल वृक्ष भी है। कहा जाता है कि कभी नानकदेव जी ने भी इसी स्थान के प्राकृतिक सौंन्दर्य से आकर्षित होकर यहाँ कुछ समय के लिए वृक्ष के नीचे विश्राम किया था तथा ध्यान भी  किया था।  सिक्ख धर्म के तीसरे गुरु श्री गुरु अमरदास जी ने श्री गुरु नानक देव जी का इस स्थान से संबंध होने के कारण यहीं पर एक मंदिर बनवाने का निर्णय लिया। यहाँ पर गुरुद्वारे की पहली नींव रखी गई थी। कहा जाता है कि श्रीराम के दोनों पुत्र शिकार करने के लिए भी कभी इस तालाब के पास आए थे पर इसका कोई प्रमाण  नहीं है।

इस तालाब के पानी में कई  मछलियाँ हैं पर न मच्छर हैं न कोई दुर्गंध।लोगों का विश्वास है कि इस जल से स्नान करने पर असाध्य रोग दूर हो जाते हैं।स्थान स्थान पर स्त्री -पुरुष के स्नान करने और वस्त्र बदलने की व्यवस्था भी है।

इतिहासकारों का मानना है कि 550 वर्ष पूर्व अमृतसर शहर अस्तित्व में आया।। सिक्ख धर्म के चौथे गुरु श्री गुरु रामदास जी ने इस गुरुद्वारे की स्थापना श्री हरिमंदर साहिब की नींव रखकर की थी।

1564 ई. में चौथे गुरु श्री गुरु रामदास जी ने वर्तमान अमृतसर नगर की नींव रखने के बाद  स्वयं भी यहीं रहने लगे थे। उस समय इस नगर को रामदासपुर या चक-रामदास कहा जाता था।

 यह गुरुद्वारा सरोवर के बीचोबीच  बना हुआ है। इस के सौंदर्य को कई बार नष्ट किया गया आखिर राजा रणजीत सिंह ने  स्वर्ण-पतरों से इसकी दीवारों, गुम्बदों को मढ़ दिया। इस कारण इस गुरुद्वारा साहिब का नाम  स्वर्ण मंदिर भी रखा गया।

आज यह पूरे विश्व में सिक्खों का प्रसिद्ध धर्मस्थल है। बिना किसी शोर-शराबा के,  बिना किसी घंटा -घड़ियाल के यहाँ पाठी शबद गाते रहते हैं।सारा परिसर पवित्रता और शांति का द्योतक बन उठता है।

यहाँ लंगर की बहुत अच्छी व्यवस्था है और दिन भर में एक लाख से अधिक लोग भोजन करते हैं।दर्शनार्थी कार सेवा भी करते रहते हैं।आज यहाँ आटा मलने, रोटी बनाने, सब्जियाँ काटने ,दाल ,कढ़ी राजमा, छोले, चावल पकाने  आदि के लिए  बिजली की मशीनें लगा दी गई  हैं। विदेश में रहनेवाले सिक्ख श्रद्धालु  प्रतिवर्ष भारी आर्थिक सहायता देते रहते हैं जिस कारण मंदिर की देखरेख भली प्रकार से होती रहती है।

अमृतसर पंजाब राज्य का अत्यंत महत्वपूर्ण शहर है। यह पाकिस्तानी सीमा पर है।जिसका नाम अटारी बॉर्डर है पर लोग आज भी इस स्थान को बाघा बॉर्डर कहते हैं। बाघा गाँव विभाजन के बाद पाकिस्तान में चला गया ।हमारे हिस्से की सीमा अटारी गाँव है। न जाने  हम भारतीयों में चलता है वृत्ति क्यों कूट-कूटकर भरी है कि हम आज भी अपनी सीमा का नाम न लेकर पाकिस्तान की सीमा का नाम लेते रहते हैं।

यह अटारी बॉर्डर स्वर्ण मंदिर से 35 कि.मी.की दूरी पर है। किसी ऑटो वाले से आप अटारी बॉर्डर  जाने के लिए कहेंगे तो वह पूछेगा ओ कित्थे साब? जबकि हमारे बॉर्डर के कमान पर अटारी लिखा हुआ है पर हमारी लापरवाही ही तो अब तक की तबाही का कारण रह चुकी है न!

अमृतसर के गुरुद्वारा श्री हरमंदिर साहिब या गोल्डन टैम्पल के पास  ही जलियांवाला बाग है। पर्यटक इस ऐतिहासिक स्थल का अवश्य ही दर्शन करते हैं। जलियांवाला बाग अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के पास का एक छोटा सा बगीचा है। 1919 में जनरल डायर के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने गोलियाँ चला कर सभा में उपस्थित निहत्थे पुरुषों, महिलाओं और बच्चों सहित सैंकड़ों लोगों को मार डाला था। इस घटना ने भारत के इतिहास की धारा को बदल कर रख दिया। इस हत्याकांड का बदला लेने के लिए शहीद उधम सिंह बाईस वर्ष तक प्रतीक्षा करते रहे और आखिर इंगलैंड जाकर उस समय रह चुके भारतीय गवर्नर डायर को गोलियों  से भून दिया और स्वयं हँसते हुए शहीद ढींगरा की तरह फाँसी के फंदे में झूल गए।पर हमारे इतिहास में शायद ही कहीं उनका नाम आता है।

अमृतसर शहर घूमने आनेवाले गोबिंदगढ़ किले को देखने के लिए जरूर जाते हैं। यहाँ जाने के लिए शाम चार बजे का समय सबसे उत्तम होता है। किले का नज़ारा लेने के बाद यहाँ  होने वाले सांस्‍कृतिक कार्यक्रम का भी आनदं लिया जा सकता है। इस शो में भँगड़ा और मार्शल आर्ट्स का आयोजन होता है। इस किले में लाइट एंड साउंड शो भी एक मुख्य आकर्षण होता है।

ईश्वर की असीम कृपा है मुझ पर कि आज तक ऐसे अनेक विशेष स्थानों पर दर्शन के कई  अवसर प्रदान किए।

आज गुरुपूरब के अवसर पर ईश्वर से प्रार्थना भी यही है कि मेरी यायावर यात्राएँ मृत्यु तक जारी रहे, प्रभु के दर्शन मिलते रहे। नानकसाहब की कृपा बनी रहे।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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