डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “स्त्री ब्रेल लिपि नहीं”. डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख जहाँ एक ओर स्त्री शक्ति की असीम शक्तिशाली कल्पनाओं पर विमर्श करता है वहीँ दूसरी ओर पुरुषों को सचेत करता है कि स्त्री ब्रेल लिपि नहीं, जिसे स्पर्श द्वारा समझा जा सकता है। डॉ मुक्ता जी ने इस तथ्य के प्रत्येक पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की है। डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य दर्ज करें )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 27 ☆
☆ स्त्री ब्रेल लिपि नहीं ☆
सृष्टि की सुंदर व सर्वश्रेष्ठ रचना स्त्री, जिसे परमात्मा ने पूरे मनोयोग से बनाया… उसे सृष्टि रचना का दायित्व सौंपा तथा शिशु की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम बनाया। भ्रूण रूप में नौ माह तक उसकी रक्षा व पालन-पोषण एक अजूबे से कम नहीं है। शिशु के जन्म के पश्चात् मां के अमृत समान दूध की संकल्पना भी किसी आश्चर्य से कम नहीं है। मां का शिशु की गतिविधियों को देखकर, उसकी आवश्यकता व सुख-दु:ख की अनुभूति करना,उसकी की सुख-सुविधा के निमित्त स्वयं गीले में सोना व उसे सूखे में सुलाना…उसे बोलना, चलना, पढ़ना- लिखना सिखलाना व सुसंस्कारित करना…वास्तव में श्लाघनीय है, प्रशंसनीय है, अद्वितीय है, बेमिसाल है, जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। हां! इसके एवज़ में उसे प्राप्त होता है मातृत्व सुख जो किसी दिव्य व अलौकिक आनंद से कम नहीं है।
जयशंकर प्रसाद जी की कामायनी में मनु व श्रद्धा को सृष्टि-रचयिता स्वीकारा गया है…इस संदर्भ में अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। प्रलय के पश्चात् मनु व श्रद्धा का मिलन, एक-दूसरे के प्रति आकर्षण, वियोगावस्था में मनु व इड़ा का प्रेम व मिलन मानव को जन्म देता है और वे दोनों संसार रूपी सागर में डूबते-उतराते रहते हैं। अंत में इड़ा का मानव को सम्पूर्ण मानव बनाने के लिए श्रद्धा के पास ले जाना और उसे तीनों लोकों निर्वेद, दर्शन, रहस्य की यात्रा करवा कर जीने का सही अंदाज़ सिखलाना अलौकिक आनंद की प्रतीति कराता है, जो वास्तव में श्लाघनीय है, मननीय है। जीवन में सामंस्यता प्राप्त करने के लिए, जिस कर्म को आप करने जा रहे हैं, उसके बारे में पूरी जानकारी होना आवश्यक है, अन्यथा आप द्वारा किये गये कार्य से आपकी इच्छा कभी पूर्ण नहीं हो पाएगी…आपकी भटकन कभी समाप्त नहीं होगी और जीवन में समरसता नहीं आ पाएगी। कामायनी का जीवन-दर्शन मानवतावादी है और समरसता…आनंदोपलब्धि का प्रतीक है।
मुझे स्मरण हो रहा है वह उद्धरण… जब मानव को परमात्मा ने सृष्टि में जाने का फरमॉन सुनाया, तो उसने प्रश्न किया कि वे उसे अपने से दूर क्यों कर हैं…वहां उसका ख्याल कौन रखेगा? वह किसके सहारे ज़िंदा रहेगा? इस पर प्रभु ने उसे समझाया कि मैं…. मां अथवा जननी के रूप में सदैव तुम्हारे साथ रहूंगा अर्थात् संसार में मां से बढ़कर दूसरा कोई हितैषी नहीं और वह तुम्हें स्वयं से बढ़ कर प्यार करेगी… तुम्हारी अच्छे ढंग से परवरिश करेगी…तुम्हें किसी प्रकार का अभाव अनुभव नहीं होने देगी। सो! सृष्टि-नियंता ने स्त्री-पुरूष को एक-दूसरे का पूरक बनाया है… एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है, अधूरा है। वे गाड़ी के दो पहियों के समान हैं और उनका चोली-दामन का साथ है। इसमें जीवन का सार छिपा है कि मानव को पति-पत्नी के रूप में एक-दूसरे के सुख-दु:ख में साथ देना चाहिए… इसके लिए उन्होंने विवाह की व्यवस्था निर्धारित की, ताकि मानव मर्यादा में रहकर, घर-परिवार व समाज में स्नेह व सौहार्द उत्पन्न करे तथा अपने दायित्वों का बखूबी वहन करें। वास्तव में एक के अधिकार दूसरे के कर्त्तव्य होते हैं और कर्त्तव्यों की अनुपालना से, दूसरे के अधिकारों की रक्षा संभव है। दूसरे शब्दों में इसमें छिपा है… त्याग व समर्पण का भाव, जो पारिवारिक व सामाजिक सौहार्द का मूल है।
परंतु आधुनिक युग में प्रेम, सौहार्द, सहनशीलता, त्याग, सहानुभूति व समर्पण आदि दैवीय भाव गुज़रे ज़माने की बातें लगती हैं…इनका सर्वथा अभाव है। रिश्तों की अहमियत रही नहीं और कोई भी संबंध पावन नहीं रहा। चारों ओर आपाधापी का वातावरण है और विश्वास का भाव नदारद है। हर इंसान स्वार्थ- पूर्ति और अधिकाधिक धन कमाने के लिये दूसरे को रौंदने व किसी के प्राण लेने में तनिक भी संकोच नहीं करता। वह मर्यादा व समस्त निर्धारित सीमाओं का अतिक्रमण कर गुज़रता है। जहां तक स्त्री का संबंध है, वह तो हजारों वर्ष से दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती है…हाड़-मांस की प्रतिमा, जिसके साथ पुरूष मनचाहा व्यवहार करने को स्वतंत्र है। वर्षों पूर्व उसे पांव की जूती स्वीकारा जाता था,जिसका कारण था….उसे मंदबुद्धि अथवा बुद्धिहीन स्वीकारना।आज भी कहां अहमियत दी जाती है उसे…आज भी हर उस अपराध के लिए भी वह ही दोषी ठहरायी जाती है, जो उसने किया ही नहीं।
सो! अहंनिष्ठ पुरुष उसे मात्र वस्तु समझ, उस पर कभी भी, कहीं भी निशाना साध सकता है। अपनी वासना-पूर्ति के लिए उसका अपहरण कर, उसका शील-हरण कर सकता है, उससे दरिंदगी कर सबूत मिटाने के लिए उसके चेहरे पर पत्थरों से प्रहार कर, उसके टुकड़े-टुकड़े कर, दूरस्थ किसी नाले या गटर में फेंक सकता है। आजकल एकतरफ़ा प्यार में तेज़ाब का प्रयोग, उसे ज़िंदा जलाने में अक्सर किया जाने लगा है। हर दिन ऐसे हादसे सामने आ रहे हैं। उदाहरणत: हैदराबाद की प्रियंका, उन्नाव की दुष्कर्म पीड़िता, जिस पर रायबरेली जाते समय ज्वलनशील पदार्थ उंडेल दिया गया। बक्सर में भी ऐसे ही हादसे को अंजाम दिया गया। चार दिन में तीन निर्दोष युवतियां उन सिरफिरों के वहशीपन का शिकार हुयीं और तीनों इस जहान से रुख़्सत हो गयीं…. परंतु वे अपने पीछे अनगिनत प्रश्न छोड़ गयीं। आखिर कब तक चलता रहेगा यह सिलसिला? ऐसे जघन्य अपराधी कब तक छूटते रहेंगे और ऐसे हादसों को पुन:अंजाम देते रहेंगे?
प्रश्न उठता है, जिस पर चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है…’ स्त्री कोई ब्रेल लिपि नहीं, जिसे समझने के लिए स्पर्श की ज़रूरत पड़े। स्त्री तो संकेतिक भाषा है, जिसे समझने के लिए संवेदनाओं की ज़रूरत है। वह स्वभाव से ही छुई-मुई व कोमल है, समझने के लिए स्पर्श की आवश्यकता नहीं है। वह तो छूने-मात्र से संकोच का अनुभव करती है,पल भर मुरझा जाती है। वह दया, करूणा व ममता का अथाह सागर है… जीवन-संगिनी है, हमसफ़र है, त्याग की प्रतिमा है और सेवा व समर्पण उसके मुख्य गुण हैं। बचपन से वृद्धावस्था तक वह दूसरों के लिए जीती है तथा उनकी खुशियों में अपना संसार देखती है…बलिहारी जाती है। बचपन में भाई-बहनों पर स्नेह लुटाती, घर के कामों में माता का हाथ बंटाती, भाई व पिता के सुरक्षा-दायरे में कब बड़ी हो जाती… जिसके उपरांत पिता के घर से विदा कर दी जाती है, जहां उसे पति व परिवारजनों की खुशी व सबकी आकांक्षाओं पर खरा उतरने के लिए अपने अरमानों का गला घोंटना पड़ता है। वह ता-उम्र अपने बच्चों के लिए पल-पल जीती, पल-पल मरती है और पति के हाथों हर दिन तिरस्कृत प्रताड़ित होती अपना जीवन बसर करती है…वृद्धावस्था में सब की उपेक्षा के दंश झेलती एक दिन दुनिया को अलविदा कह रुख़्सत हो जाती है।
यह है औरत की कहानी… परंतु आजकल 85% बालिकाएं अपनों द्वारा छली जाती हैं और उनकी गलत आदतों का शिकार होती हैं। बड़े होने पर मनचलों द्वारा उन्हें बीच राह रोक कर फब्तियां कसना, बसों आदि में गलत इशारे करना,उनके शरीर का स्पर्श करना, बेहूदगी करना, व्यंग्य-बाण चलाना … उनके विरोध करने पर अंजाम भुगतने को तैयार रहने की धमकी देना, उन्हें बीच बाज़ार बेइज़्ज़त व बेआबरू करना, सरे-आम अपहरण कर निर्जन स्थान पर ले जाकर उससे दुष्कर्म करना आदि आजकल सामान्य सी बात हो गई है। इसके साथ उनके साथ होने वाले भीषण व जघन्य हादसों का चित्रण हम पहले ही कर चुके हैं।
काश! हम बच्चों को अच्छे संस्कार दे पाते… प्रारंभ से बेटी-बेटे में अंतर न करते हुए, बेटों को अहमियत न देते, उन्हें बहन-बेटी के सम्मान करने का संदेश देते, आपदाग्रस्त हर व्यक्ति की सहायता करने का मानवतावादी पाठ पढ़ाते, रिश्तों की अहमियत समझाते, तो वे सामान्य इंसान बनते, जिनमें लेशमात्र भी अहंनिष्ठता का भाव नहीं होता। उनका गृहस्थ जीवन सुखी होता। तलाक अर्थात् अवसाद के किस्से आम नहीं होते। हर तीसरे घर में तलाकशुदा लड़की माता-पिता के घर में बैठी दिखलायी न पड़ती। आज कल तो युवा पीढ़ी विवाह रूपी बंधन को नकारने लगी है और समाज में ‘तू नहीं और सही’ का प्रचलन बढ़ने लगा है, जिसका मुख्य कारण है…अहंनिष्ठता व सर्वश्रेष्ठता का भाव होना,भारतीय संस्कृति की अवहेलना करना व मानव-मूल्यों को नकारना।
वास्तव में अहं ही संघर्ष का मूल है, जिसके कारण दोनों ही समझौता नहीं करना चाहते और परिवार टूटने के कग़ार पर पहुंच जाते हैं। जीवन रूपी गाड़ी को सुचारू रूप से चलाने के लिए समर्पण व त्याग की आवश्यकता है। शायद! इसीलिए स्त्री को सांकेतिक भाषा की संज्ञा से अभिहित किया गया है… जैसे वह बच्चे के मनोभावों व संकेतों को समझ, उसकी प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करती है, वैसे ही उसे भी अपेक्षा रहती है कि कोई उसे समझे, जीवन में अहमियत दे और उसके अहसासों व जज़्बातों को अनुभव करे। वह अपनत्व चाहती है तथा उसे दरक़ार रहती है कि कोई उसकी भावनाओं की कद्र करे। वह केवल स्नेह की अपेक्षा करती है, जिसे पाने के लिए वह सर्वस्व समर्पित करने को तत्पर रहती है। उस मासूम को तो पिता के घर में ही यह अहसास दिला दिया जाता है कि वह घर उसका नहीं, वह यहां पराई है तथा पति का घर ही उसका अपना घर होगा। परंतु वहां भी सी•सी• टी• वी• कैमरे लगे होते हैं, जिनमें उसकी हर गतिविधि कैद होती रहती है और वह सब की उपेक्षा-अवहेलना की शिकार होती है। अंत में उसे पुत्र व पुत्रवधू के संकेतों को समझ, उनके आदेशों की अनुपालना करनी पड़ती है और उसकी तलाश का अंत इस जहान को अलविदा कहने के पश्चात् ही होता है।
अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि रिश्ते तभी मज़बूत होते हैं, जब हम उन्हें महसूसते हैं अर्थात् जब हम संवेदनशील होते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख को अनुभव करते हैं, तभी रिश्तों में प्रगाढ़ता आती है। औरत को समझने के लिए संकेतों अथवा संवेदन- शीलता की आवश्यकता होती है। जिस दिन हम यह सोच लेंगे कि हर इंसान में कमियां होती हैं। उसे उनके साथ स्वीकारने से ही ज़िंदगी में सुक़ून प्राप्त हो सकता है और वह सुख-शांति से गुज़र सकती है। समाज में सौहार्द, समन्वय व सामंजस्यता और अपराध-मुक्त साम्राज्य की स्थापना हो सकती है।
सो! स्त्री ब्रेल लिपि नहीं, जिसे स्पर्श द्वारा समझा जा सकता है। वह वस्तु नहीं है, जिसे समझने के लिए उलट-फेर व उसकी चीर-फाड़ करना आवश्यक है। वह तो मात्र चिंगारी है, जो जंगलों को को जलाकर राख कर सकती है…उसके हृदय का लावा किसी भी पल फूट सकता है तथा सब कुछ तहस-नहस कर सकता है। इसलिए उसके धैर्य की परीक्षा मत लेना। वह केवल नारायणी ही नहीं, उसमें दुर्गा व काली की शक्तियां भी निहित हैं, जिन्हें यथा समय संचित कर वह पल भर में रक्तबीज जैसे शत्रुओं का मर्दन कर सकती है। इसलिए उसे गुप्त अबला व प्रसाद की श्रद्धा समझने की भूल मत करना। वह असीम- अनन्त साहस व विश्वास से आप्लावित है, जिसके शब्दकोष में असंभव शब्द नदारद है। इसलिए उसे छूने का साहस मत करना… वह सारी क़ायनात को जलाकर राख कर देगी और सृष्टि में हाहाकार मच जायेगा।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
मो• न•…8588801878