श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य – “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 140 ☆
☆ “यात्रा वृतांत– दशपुर के एलोरा मंदिर की यात्रा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
जैसे ही मिट्ठू मियां को मालूम हुआ कि मैं, मेरी पत्नी और पुत्री प्रियंका पशुपतिनाथ मंदिर मंदसौर और एलोरा की तर्ज पर बना मंदिर धर्मराजेश्वर देखने जा रहे हैं वैसे ही उसने मुझसे कहा, “मालिक! मैं भी चलूंगा।”
मगर मेरा मूड उसे ले जाने का नहीं था। मैंने स्पष्ट मना कर दिया, “मिट्ठू मियां! मैं इस बार तुम्हें नहीं ले जाऊंगा।”
मिट्ठू मियां कब मानने वाला था। मुझसे कहा, “मुझे पता है नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर देखने जाते वक्त बहुत परेशानी हुई थी।” यह कह कर उसने मेरी ओर देखा।
मैं कुछ नहीं बोला तो उसने कहा, “मैं कैसे भूल सकता हूं कि आप हवाई अड्डे के अंदर कैसे मुझे ले गए थे। वह तरकीब मुझे याद है,” उसने कहा, “हवाई जहाज में आप मुझे हैण्डबैग में भरकर ले गए थे। वहां मेरा जी बहुत घबराया था। मगर मैं चुप रहा। मुझे हवाई जहाज की यात्रा करना थी।”
“हां मुझे मालूम है,” मैंने कहा तो मिट्ठू मियां बोला, “इस बार मैं चुप रहूंगा। आप जैसा कहोगे वैसा करूंगा। मगर आपके साथ जरूर चलूंगा,” उसने तब तक बहुत आग्रह किया जब तक हम जीप लेकर चल न दिए।
मैं उसका आग्रह टाल न सका। झट से ‘हां’ में गर्दन हिला कर सहमति दे दी।
तब खुश होकर मिट्ठू मियां हमारी जीप में सवार हो गया। मगर, उसे जीप बहुत धीरे-धीरे चलती हुई लग रही थी। वह बोला, “आप जीप थोड़ी तेज चलाइए। मैं आपकी जीप के साथ उड़ता हूं। देखते हैं कि कौन तेज चलता है?” कह कर मिट्ठू मियां उड़ गया।
मैंने उसकी बात मान ली और जीप तेज चला दी। मगर मिट्ठू बहुत तेज उड़ रहा था। वह जीप से कहीं आगे निकल गया। इस तरह हम नीमच से निकलकर 55 किलोमीटर दूर मंदसौर यानी दशपुर पहुंच गए।
यहां शिवना नदी के किनारे पशुपतिनाथ का मंदिर स्थित है। जिसके अंदर चमकते हुए तांबे की उग्र चट्टान को तराश कर बनाई गई अष्टमुखी शिव प्रतिमा के हमने दर्शन किए। यह मूर्ति 11.25 फीट ऊंची तथा 64065 किलो 525 ग्राम वजनी पत्थर से निर्मित है। इसमें जीवन की आठों दिशाओं को शिव के मुखमंडल द्वारा दर्शाया गया है।
इस अद्भुत मूर्ति को देखकर मिट्ठू मियां के मुंह से निकल पड़ा, “मालिक! यह तो नेपाल के पशुपतिनाथ की चार मुखी मूर्ति से बहुत बड़ी व अद्भुत मूर्ति है।”
मैं भी चकित था, “वाकई! बहुत अद्भुत मूर्ति हैं,” कहते हुए मैंने मिट्ठू मियां को कैमरा दिया। वह उसे लेकर ऊंचा उड़ गया। उसने मंदसौर के पशुपतिनाथ के 111 फीट ऊंचे मंदिर का बहुत ऊंचाई से हमें दर्शन करा दिए।
इस अद्भुत मंदिर को देखकर मैं, मेरी पत्नी और बेटी- हम सब बहुत खुश हुए। हम कई फोटो लिए। वे बहुत ही सुंदर आए थे।
चूंकि हमें यहां से 122 किलोमीटर दूर चंदवासा जाना था। यह मंदसौर जिले की शामगढ़ तहसील में स्थित है। यहीं से धमनार और वहां की गुफाएं 3 किलोमीटर दूर पड़ती है। यह स्थान शामगढ से मंदिर 22 किलोमीटर दूर है। इस कारण हमने जीप स्टार्ट की ओर चल दिए। ताकि समय से हम दर्शनीय स्थान पर पहुंच सकें।
मिट्ठू मियां को उड़ने की आदत थी। वह जीप के साथ-साथ उड़ता जा रहा था। वह हमसे रेस लगा रहा था। मगर हर बार हम हार जाते थे। क्योंकि मिट्ठू मियां हवा में सीधा उड़ रहा था। हम भीड़ भरे रास्ते और सड़क पर चल रहे थे। इस कारण हम उससे पीछे रह जाते।
इस तरह मिट्ठू मियां से रेस लगाते हुए हम जैसे ही शामगढ़ से चंदवासा पहुंचे मिट्ठू मिया ने उड़ते-उड़ते ही कहा, “मालिक! मुझे धर्मराजेश्वर का अद्भुत मंदिर दिखाई दे रहा है।”
मैंने मिट्ठू मियां को बुलाकर उसे कैमरा पकड़ा दिया। वह ड्रोन कैमरे की तरह कैमरा लेकर उड़ पड़ा। जैसे हम धमनार पहुंचे वैसे ही धर्मराजेश्वर मंदिर को देखकर चकित रह गए।
चंदन गिरी की पहाड़ियों की एक चट्टान को तराश कर यह शिव मंदिर बनाया गया था। इस मंदिर को 104 गुणा 67 फीट लंबाई-चौड़ाई और 30 मीटर की गहराई को एक चट्टान को तराश कर यानी खोद कर बनाया गया था। यह दृश्य ऊंचाई से बहुत अद्भुत लग रहा था।
किसी चट्टान को ऊपर से तराश कर खोदते जाना, साथ ही उसे मुख्य मंदिर के साथ साथ-साथ सात लघु मंदिर की शक्ल में उभारना, अद्भुत कला कौशल का काम है। इस तरह एक चट्टान को तराश कर बनाए जाने वाले मंदिर या गुफा को शैल उत्कीर्ण शैली या शैल वास्तुकला कहते हैं। यह बहुत ही वैज्ञानिक और बुद्धिमत्ता का काम है।
मिट्ठू मियां इस मंदिर के ऊपर उड़ते हुए बोला, “वाह! यह मंदिर एलोरा के कैलाश मंदिर की तरह तराश कर बनाया गया अद्भुत मंदिर है।”
तब अचानक मेरे मुंह से निकल गया, “इस मंदिर व एलोरा के कैलाश मंदिर में कुछ तो अंतर होगा?” मेरे यह कहते ही मिट्ठू मियां एक शिलालेख के पास पहुंच गया।
वहां पर जो शिलालेख उत्कीर्ण था, उससे पता चला कि एलोरा का कैलाश मंदिर दक्षिण भारतीय द्रविड़ शैली से निर्मित वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। वही दशपुर का धर्मराजेश्वर का यह शिव मंदिर उत्तर भारतीय नागरी शैली का उत्कृष्ट नमूना है। दोनों ही मंदिरों में बारीक पच्चीकारी, भित्ति चित्र, भित्ति पर उकेरी गई मूर्तियां तथा द्वार मंडप, सभा मंडप, अर्धमंडप, गर्भगृह, कलात्मक शिखर, मुख्य द्वार पर निर्मित भैरव व भवानी की प्रतिमा के अद्भुत दर्शन होते हैं।
अरावली की पहाड़ियों के पास स्थित चंदन गिरी की पहाड़ियों पर यत्र तत्र बिखरी पड़ी इन भारतीय संस्कृति की विरासत और अद्भुत वास्तुकला के नमूनों को देखकर हम चकित थे। तभी मिट्ठू मियां ने हमें चेताया, “मलिक, इस मंदिर को ही देखते रहोगे या यहां की बौद्ध धर्म की अद्भुत गुफाओं के भी दर्शन करोगे।”
समय तेजी से भाग रहा था। मैंने कहा, “क्यों नहीं।” यह कहते हुए हम मंदिर से झट से बाहर निकलें। इंडियन रॉक कट आर्किटेक्चर के अद्भुत नमूने की गुफाएं देखने चल दिए।
जैसे ही टिकट लेकर हम अंदर गए वैसे ही मिट्ठू मिया ने हमें उस अद्भुत तथ्य से मुझे अवगत करा दिया। जिसकी जानकारी हमें नहीं थी।
“मालिक! एलोरा में 34 गुफाएं हैं। जिसने 5 जैन गुफाएं, 12 बौद्ध गुफाएं और 17 हिन्दू गुफाएं उल्लेखित हैं। इस तरह 34 गुफाएं बनी हुई है। मगर यहां तो 51 गुफाएं तो संरक्षित की गई है।”
“वाह!” मेरे साथ-साथ सभी ने कहा, “इसका मतलब यहां एलोरा और अजंता से ज्यादा गुफाएं बनी हुई हैं।” यह कहते हुए मैं एक गुफा के अंदर घुसा। वहां सभा मंडप, चैत्य, विहार आदि अनेक कक्ष व प्रार्थना स्थल बने हुए थे। इसके साथ अनेक कक्ष निर्मित थे। जिनमें प्राचीन समय की व्यापारी, बौद्ध भिक्षु आदि आहार-विहार के साथ देश विदेश में धर्म का प्रचार व शिक्षा-दीक्षा का कार्य किया करते थे।
इसके साथ साथ हमने अनेक गुफाओं के दर्शन किए।
चूंकि समय ज्यादा हो गया था, यह स्थान चंबल अभ्यारण्य के अंतर्गत आता है, यहां खाने-पीने व ठहरने के लिए कोई उत्तम व्यवस्था नहीं है। अतः हमें शीघ्र वापस लौट जाना पड़ा।
मगर वापस लौटते-लौटते मिट्ठू मियां ने एक अद्भुत दृश्य हमारे कैमरे में कैद करवा दिया। जिसके द्वारा हमें मालूम हुआ कि यहां तो 235 से अधिक गुफाएं बनी हुई है। मगर समय के थपेड़े व दसवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म के लोप हो जाने की वजह से ये सभी गुफाएं जंगली जानवरों की शरण स्थली बन गई थी। इस कारण कई स्थानों पर इस तरह बनी हुई गुफाओं को बाघ गुफाएं कहते हैं।
यह याद करते हुए मिट्ठू मियां हम वापस अपने घर लौट पड़े। मगर इस बार की हमारे यात्रा बहुत अद्भुत व यादगार रही थी। हमारे साथ-साथ मिट्ठू मियां और हम सभी बहुत खुश थे। कारण, सभी की गर्मी की छुट्टियाँ बहुत ही आनंददायक पर्यटन की सैर के साथ बीती थीं।
© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
02-05-2023
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