(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – भोजन वैविध्य…।)
व्यंग्य – भोजन वैविध्य…
इस देश में लोग चारा खा चुके हैं. दो प्रतिशत कमीशन ने पुल, नहरे और बांध के टुकड़े खाने वाले इंजीनियर बनाए हैं । सर्कस में ट्यूब लाइट और कांच, आलपीन खाते मिल ही जाते हैं । रेलवे स्टेशन पर बच्चे नशे के लिए पंचर जोड़ने का सॉल्यूशन चाव से खाते हैं ।
मंत्री, अफसर बाबू रुपए खाते हैं ।
किसी सह भोज में लोगो की प्लेट देख लें, लगता ही नहीं की ये अपने खुद के पेट में खा रहे हैं, और पेट की कोई सीमा भी होती है ।
घर जाकर एसिडिटी से भले निपटना पड़े पर सहभोज का आनंद तो ओवर डोज से ही मिलता है। बाद में हाजमोला प्रायः लोगो को लेना होता होगा ऐसा मेरा अनुमान है। मेरे जैसे दाल रोटी खाने वाले भी रसगुल्ला तो 2 पीस ले ही लेते हैं।
पीने के भी उदाहरण तरह तरह के मिलते हैं । लोग पार्टियों में जबरदस्ती पिलाने को शिष्टाचार मानते हैं । पिएं और होश में रहें तो मजा नहीं आता । हर बरस जहरीले मद्य पान से सैकड़ों जानें जाती हैं । पुरानी शराब का सुरूर गज़ल लिखवा सकता है।
आशय यह की खाने पीने की विविधता अजीबो गरीब है ।
कोई मांसाहारी हैं तो कोई शाकाहारी, कोई केवल अंडे खाने वाला सामिष भोजन लेता है तो कोई मंगलवार, शनिवार छोड़कर बाकी दिन नानवेज खा सकता है। नानवेज न खाने वाले भी डंके की चोट पर नानवेज चुटकुले सुनते सुनाते हैं।
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
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