डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसंवेदनशील एवं विचारणीय कहानी ‘एक मुख़्तसर ज़िन्दगी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ कहानी ☆ एक मुख़्तसर ज़िन्दगी ☆
विष्णु अपने माँ-बाप की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा था। पिताजी पढ़े-लिखे आदमी थे। एक स्कूल में टीचर। पढ़े-लिखे आदमियों की उम्मीदें बेपढ़े-लिखे आदमियों की तुलना में कुछ ज़्यादा होती हैं क्योंकि उन्हें दुनिया की जानकारी होती है। विष्णु के पिता ने भरसक अपने बेटों को काबिल बनाने की कोशिश की थी। दोनों बड़े बेटे काम लायक पढ़कर नौकरी में लग गये थे, लेकिन विष्णु का मन पढ़ने में नहीं लगा। स्कूल की परीक्षा किसी तरह पास करके वह कॉलेज में तो गया, लेकिन कॉलेज की डिग्री नहीं ले पाया।
कॉलेज में उसे एक ग्रुप मिल गया था जिसका लीडर एक पैसे वाला लड़का था। नाम अरुण। वह शहर के एक बड़े व्यापारी का बेटा था। पढ़ने-लिखने के बारे में उसका नज़रिया साफ था। उसे ज्ञान की नहीं, डिग्री की ज़रूरत थी जिससे उसे अपने समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त हो सके और ब्याह-शादी के मामले में उसकी स्थिति कमज़ोर साबित न हो। उसे नौकरी की ज़रूरत नहीं थी। इसलिए कॉलेज में कक्षा में बैठने के बजाय उसका ज़्यादातर वक्त कैंटीन में या इधर उधर ठलुएबाज़ी में गुज़रता था। उसके पिछलग्गू भी कक्षाएँ छोड़कर उसके पीछे डोलते रहते थे, यद्यपि उन सब की हैसियत उस जैसी नहीं थी। विष्णु भी उन्हीं में से एक था। अभी उसे भविष्य की चिन्ता नहीं थी। यही काफी था कि आज का दिन मस्ती में गुज़र रहा था।
अरुण ने ही विष्णु को कार चलाना सिखाया। उसके सैर-सपाटे की पूरी जानकारी उसके घर में न पहुँचे इसलिए वह ड्राइवर को पच्चीस पचास रुपये देकर कहीं भेज देता था और फिर स्टियरिंग विष्णु को सौंप देता था। विष्णु को कार चलाने में बड़ा मजा आता था। अरुण ने ही उसे ड्राइविंग लाइसेंस दिलवाया।
पिताजी विष्णु की लापरवाही से दुखी थे, लेकिन उनकी सारी सीख विष्णु के सिर पर से निकल जाती थी। उसे इस बात की कल्पना नहीं थी कि उसका भविष्य उसके वर्तमान से भिन्न हो सकता था। लगता था कि कल आज का ही विस्तार होगा।
विष्णु प्रथम वर्ष की परीक्षा में नहीं बैठा और इसके साथ ही अच्छी नौकरी पाने की उसकी संभावनाएँ खत्म हो गयीं। लेकिन उसे अभी समझ नहीं आयी क्योंकि अभी कोई बड़ा झटका नहीं लगा था। माता-पिता की कृपा से उसकी ज़िन्दगी की गाड़ी लुढ़क रही थी।
अरुण के साथ उसका घूमना-घामना चलता रहा। कॉलेज से नाम कट जाने के बावजूद वह अब भी अरुण के पीछे-पीछे कॉलेज में डोलता रहता था। अरुण पास हो गया था क्योंकि घर में उसके लिए हर विषय के ट्यूटर लगे थे।
लेकिन विष्णु के पिता को उसका परीक्षा में न बैठना और फिर बेमतलब घूमना अखर रहा था। अब उसे गाहे-बगाहे उनकी झिड़की सुनने को मिल जाती थी। उनका कहना था कि यदि उसे उनके बताये रास्ते पर नहीं चलना है तो वह अपनी पसन्द का रास्ता चुने, लेकिन आवारागर्दी और व्यर्थ की ठलुएबाज़ी बन्द करे। उनके विचार से विष्णु अपनी हरकतों से उन्हें और अपनी माँ को तकलीफ दे रहा था, जिसका कोई औचित्य नहीं था।
विष्णु के भाई भी गाहे-बगाहे उसे ताना देने से नहीं चूकते थे। उनकी नज़र में वह खामखाँ बूढ़े माँ-बाप पर बोझ बना हुआ था। उनकी बातें सुन सुन कर विष्णु के आत्मविश्वास और आत्मसम्मान में दीमक लगने लगी थी। माँ अभी खामोशी से उसके सामने भोजन की थाली रख देती थी, लेकिन अब निवाला विष्णु के गले में अटकने लगा था। उसे समझ में आने लगा था कि जो रोटी वह खा रहा है वह बेइज़्ज़ती की है। खाना खाते वक्त अब उसकी नज़र थाली से ऊपर नहीं उठती थी।
मुश्किल यह थी कि उसकी पढ़ाई को देखते हुए अच्छी नौकरी की कोई संभावना नहीं थी और घर में इतनी पूँजी नहीं थी कि वह अपना कोई व्यवसाय शुरू कर सके। भाइयों को तनख्वाह के अलावा अच्छी ऊपरी कमाई भी होती थी, लेकिन उनके रुख को देखते हुए उनसे कुछ मिलने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। पिता-माता विष्णु को क्या देते हैं इस पर भी उनकी नज़र रहती थी।
विष्णु समझ गया कि अब बिना हाथ-पाँव चलाये काम नहीं चलेगा। मटरगश्ती से पूरी ज़िन्दगी नहीं काटी जा सकती। उसने अरुण से कहा कि उसे किसी निजी प्रतिष्ठान में नौकरी दिलवा दे और अरुण ने उसे आश्वस्त किया कि वह जल्दी उसे कहीं काम पर लगवा देगा।
एक हफ्ते बाद ही अरुण ने उसे एक टैक्सी-मालिक के पास भेज दिया जिसकी आठ दस टैक्सियाँ चलती थीं। उसका दफ्तर बस-स्टैंड के परिसर में था।
टैक्सी-मालिक को उसके जानने वाले बाबूभाई के नाम से पुकारते थे। वह मज़बूत काठी का अधेड़ आदमी था। हमेशा दस बारह दिन की बढ़ी दाढ़ी और पान से चुचुआते ओंठ। बात में पूरा व्यवसायी।
विष्णु से पहली भेंट में ही बोला, ‘कसाले का काम है, आराम की बात दिमाग से निकाल दो। दिन रात में कभी भी ड्यूटी हो सकती है, सवारी का क्या भरोसा! हम जरूरी आराम देने की कोशिश करेंगे, लेकिन कोई गारंटी नहीं दे सकते। सवारी के साथ पूरी ईमानदारी रखना है। सवारी गाड़ी में पर्स, सामान छोड़ देती है। उसमें गड़बड़ नहीं होना चाहिए। गड़बड़ी की तो बिना रू-रियायत के पुलिस में दे देंगे। सवारी दस तरह की होती है, सबके साथ एडजस्ट करने की आदत डालनी होगी। बदतमीजी बिलकुल नहीं। अभी पगार पाँच हजार होगी। बाहर भेजेंगे तो दो सौ रूपया रोज खाना- खूराक का देंगे। मंजूर हो तो जब से आना हो आ जाओ।’
विष्णु को सुनकर झटका लगा, लेकिन अभी उसके पास कोई विकल्प नहीं था। सोचा, कम से कम भाइयों का मुँह तो बन्द होगा। अभी अकेला छड़ा है, जब शादी होगी तब तक शायद कोई बेहतर नौकरी मिल जाए। पाँच हजार में से डेढ़ दो हजार माँ को देगा तो उन्हें भी अच्छा लगेगा और खुद उसे भी।
हफ्ते भर में ही उसकी समझ में आ गया कि टैक्सी- ड्राइवर का काम कितना मुश्किल है। काम का कोई निश्चित समय नहीं। जब सवारी को दरकार हो, लेकर चल पड़ो। सब कुछ सवारी के हिसाब से, ड्राइवर के आराम के लिए कोई गुंजाइश नहीं। कुछ सवारियाँ इतनी बदतमीज़ होतीं कि उनके साथ चार कदम जाना सज़ा होती, लेकिन फिर भी शिष्टता का नाटक करते हुए उनकी सेवा में घंटों रहना पड़ता। पैसे के मद में झूमते लोग, ड्राइवर को आदमी भी न समझने वाले। मालिक भी ऐसा कि कभी-कभी घर पहुँच कर नहा-धो भी नहीं पाता कि बुलावा आ जाता, ‘जल्दी चलो, सवारी खड़ी है। बाहर जाना है।’
सवारी लेकर शहर से बाहर जाता तो मालिक की हिदायत रहती— ‘गाड़ी या तो गैरेज में रखना है या नजर के सामने। कुछ भी नुकसान हुआ तो जिम्मेदारी तुम्हारी।’ नतीजतन अक्सर गाड़ी के भीतर ही सोना पड़ता, चाहे कितनी भी असुविधा क्यों न हो। इसके अलावा सवारी यह उम्मीद करती कि उसे जिस वक्त भी आवाज़ दी जाए वह हाज़िर मिले। दो चार आवाज़ें लगाने के बाद सवारी की त्यौरियाँ चढ़ जातीं।
बाहर अक्सर टॉयलेट की सुविधा न मिलती। निर्देश मिलता, ‘बोतल लेकर सड़क के आसपास कहीं चले जाओ। वहीं कहीं नल पर नहा लेना।’
एक बार एक सवारी को लेकर उसके गाँव गया था। वहाँ पहुँचकर उसने सवारी से एक कप चाय की फरमाइश कर दी तो सवारी ने कुपित होकर सीधे बाबूभाई को फोन लगा कर उसकी गुस्ताखी की शिकायत कर दी। जैसा कि अपेक्षित था, बाबूभाई ने बाजारू भाषा में उस की खूब खबर ली और विष्णु ने आगे सवारी से कोई भी फरमाइश करने से तौबा कर ली।
विष्णु लगातार कोशिश कर रहा था कि कहीं ऐसी जगह नौकरी मिल जाए जहाँ काम के घंटे निश्चित हों और पगार भी कुछ बेहतर हो। लेकिन दुर्भाग्य से कहीं जम नहीं रहा था ।अब उसे समझ में आ रहा था कि पढ़ाई बीच में छोड़ कर उसने कितनी बड़ी गलती की थी।
उसके पिता को यह नौकरी पसन्द नहीं थी, लेकिन माँ का खयाल और था। उनकी नज़र में वह काम-धाम से लग गया था, इसलिए अब उसकी शादी हो जानी चाहिए थी। उनके हिसाब से शादी-ब्याह की एक उम्र होती है। घर अपना था, बाकी भगवान पूरा करता है।
माँ ने ज़िद करके जल्दी ही उसकी शादी एक सामान्य परिवार में करा दी। शायद कहीं विष्णु की भी इच्छा रही हो क्योंकि उसे लगता था कि दो आदमियों का खर्च वह उठा सकता है। घर अपना होने के कारण इज्जत का फालूदा बनने की गुंजाइश कम थी। लड़की के बाप को बताया गया कि लड़का एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में नौकरी करता है।
शादी के बाद रश्मि के साथ विष्णु के कुछ दिन अच्छे कटे। एक दिन के लिए बाबूभाई ने उसे एक गाड़ी दे दी कि पेट्रोल भरा कर घूम-घाम ले। रश्मि ने उससे पूछा कि गाड़ी किसकी है, तो विष्णु का जवाब था, ‘अपनी ही समझो।’ उस दिन शहर के सभी दर्शनीय स्थानों की सैर हुई। खाना- पीना भी बाहर हुआ। रश्मि खूब आनंदित हुई।
लेकिन ये सुकून ज़्यादा दिन नहीं चला। एक रात ग्यारह बजे बाबूभाई का आदमी उनके सुख में खलल डालने आ गया। किसी सवारी को लेकर तुरन्त जाना था। रश्मि के ऐतराज़ के बावजूद विष्णु को जाना पड़ा। मना करने का मतलब नौकरी से हाथ धो लेना था, और शादी के बाद नौकरी उसकी और बड़ी ज़रूरत बन गयी थी।
फिर यह आये दिन की बात हो गयी। बाबूभाई का आदमी कभी भी सर पर सवार हो जाता, न रात देखता न दिन। रश्मि का माथा गरम होने लगा। कहती, ‘मैं कह देती हूँ कि तुम घर में नहीं हो।’ विष्णु उसके हाथ जोड़कर झटपट तैयार होकर भाग खड़ा होता।
रश्मि नाराज़ रहने लगी। वह विष्णु से पूछती थी कि यह कैसी नौकरी है जिसमें कभी भी पकड़ कर बुला लिया जाता है? उसने अभी तक ऐसी नौकरियाँ ही देखी थीं जिनमें आदमी सुबह काम पर जाता है और शाम को सब्ज़ी-भाजी लेकर वापस आ जाता है। उधर विष्णु जाता तो हफ्तों लौट कर न आता।
एक दिन विष्णु बाहर से लौटकर घर आया तो रश्मि की चिट्ठी उसका इंतज़ार कर रही थी। लिखा था— ‘मैं जा रही हूँ। अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती। जब कोई ढंग की नौकरी मिल जाए तो खबर करना। तब तक मुझे मत बुलाना।’
विष्णु बदहवास ससुराल पहुँचा, लेकिन रश्मि उससे नहीं मिली। उसके बड़े भाई ने बेरुखी से कहा, ‘कोई ठीक नौकरी ढूँढ़ लीजिए तो हम भेज देंगे। तब तक रश्मि को यहीं रहने दीजिए।’
विष्णु को आघात लगा। उसने सोचा था कि उसकी कठोर और थकाने वाली दिनचर्या के बाद रश्मि उसके लिए ठंडी छाँह होगी। उसे बताया गया था कि पति-पत्नी का रिश्ता जन्म- जन्म का होता है। उसका दिल टूट गया। वह, परास्त, घर लौट आया। जब वह घर पहुँचा तो बाबूभाई का आदमी उसे ढूँढ़ता फिर रहा था। एक जोड़े को लेकर चार दिन के लिए पचमढ़ी जाना था।
जाने वाले नवविवाहित दिखते थे। दोनों एक दूसरे में रमे थे, दीन दुनिया से बेखबर। विष्णु का मन ड्यूटी करने का बिलकुल नहीं था। उस जोड़े का प्यार देखकर उसे चिढ़ हो रही थी। उसे लग रहा था प्यार व्यार सब ढोंग है। ढोंग न होता तो रश्मि उसे छोड़कर इस तरह कैसे चली जाती?
सफर के दौरान गाड़ी में भी वह जोड़ा एक दूसरे से लिपट-चिपट रहा था। विष्णु का दिमाग भिन्ना गया। पलट कर युवक से बोला, ‘ठीक से बैठिए। दुनिया देखती है।’
युवक गुस्से से आगबबूला हो गया। डपट कर बोला, ‘गाड़ी रोक।’
गाड़ी रुकने पर वह विष्णु से धक्का-मुक्की करने लगा। बोला, ‘तेरी यह हिम्मत! दो कौड़ी का आदमी।’
विष्णु ने अपना सन्तुलन खो दिया। उसने क्रोध में युवक को ज़ोर का धक्का दिया तो वह ज़मीन पर ढह गया। भय से विस्फारित नेत्रों से वह चिल्लाने लगा— ‘हेल्प, हेल्प, ही विल किल मी।’ उसकी पत्नी मुँह पर मुट्ठियाँ रखकर चीख़ने लगी।
विष्णु के मन में क्रोध का स्थान भय ने ले लिया। वह गाड़ी लेकर वापस भागा। पीछे मुड़ मुड़ कर देख लेता था कि पुलिस की या अन्य गाड़ी पीछा तो नहीं कर रही है। बदहवासी में उसे होश नहीं था कि गाड़ी की स्पीड कितनी ज़्यादा है। दूसरी तरफ उस पर यह डर भी हावी था कि बाबूभाई उसे कोई बड़ी सज़ा दिये बिना नहीं छोड़ेगा। इन्हीं दुश्चिंताओं के बीच फँसे विष्णु के सामने अचानक एक लड़का आ गया और उसे बचाने के चक्कर में गाड़ी सन्तुलन खोकर एक पेड़ से चिपक गयी।
राहगीरों ने खींच-खाँचकर विष्णु को गाड़ी से बाहर निकाला। गाड़ी की तरह उसका शरीर भी पिचक गया था। उसे सड़क के किनारे लिटा दिया गया। कोई दयालु गाड़ीवाला सौभाग्य से गुज़रे तो कुछ मदद की गुंजाइश बने।
जब बाबूभाई को दुर्घटना की खबर मिली तो वह बोला, ‘गनीमत है कि गाड़ी का बीमा था, वर्ना लौंडे ने तो कबाड़ा ही कर दिया था।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈