श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण रचना कल, आज और कल . अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकेंगे. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 15 – विशाखा की नज़र से ☆
☆ कल, आज और कल ☆
रखते हैं तानों भरा तरकश हम अपनी पीठ पर
देते हैं उलाहनों भरा ताना अपने अतीत को
जो, आ लगता है वर्तमान में,
हो जाते हैं हम लहूलुहान ..
भविष्य को तकते, रखते है
उम्मीदों की रंग- बिरंगी थाल दहलीज़ पर
निगरानी में खुली रखतें हैं आँखे,
पर रंगों की उड़ती किरचों से हो जाती है आँखें रक्तिम …
कल और कल के बीच क्षणिक से “आज” में
झूलते हैं दोलक की तरह
बजते, टकराते है अपनी ही चार दिवारी में
और,
काल बदल जाता है
इसी अंतराल में ।
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र