श्री राकेश कुमार
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 37 ☆ देश-परदेश – उल्टा समय ☆ श्री राकेश कुमार ☆
कुछ दिनों से प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऐसे विज्ञापनों की बाढ़ आ गई है, जो उधार लेकर बिना आवश्यकता के सामान खरीदने के लिए आकर्षित ही नहीं बाध्य कर रहे हैं।
हमारी संस्कृति या सामाजिक व्यवस्था में उधार लेना बुरी बात मानी जाती हैं।
बाजारू ताकतें हमारी अदातें बदल कर हमें मजबूर कर रही हैं। बैंक और अन्य वाणिज्यिक संस्थाएं भी खजाने खोल कर बैठी हैं, लोन देने के लिए। आप बस कोरे कागज़ात पर हस्ताक्षर करने के लिए हामी भर देवें।
उपरोक्त विज्ञापन कह रहा है “आज उधार :कल नगद” जबकि हमारे यहां तो व्यापारिक संस्थानों में इसका उल्टा “आज नगद: कल उधार” की सूचना लिखी रहती थी। विज्ञापन में ये भी लिखा था “नगद देकर शर्मिंदा ना करें” जबकि ये मूलतः उधार मांग कर शर्मिंदा ना करें था। “नौ नगद ना तेरह उधार” के सिद्धांत पर ही सदियों से हमारी अर्थव्यवस्था चल रही थी। तो अब ये क्या बातें हो रही है, कि खपत बढ़ानी चाहिए तभी हमारी अर्थव्यवस्था चल सकती है।
हम तो बचत कर क्रय करने की परंपरा वाले समाज से आते हैं, उल्टी गंगा बहाई जा रही हैं। अनावश्यक सामान या पूरे वर्ष में खपत होने वाली जिंसो को लेकर घर भर लो, ताकि खपत भी बढ़ जाए और बड़े उद्योगपतियों की पौ बारह हो जाए।
उधार प्रेम की कैंची है, जैसे शब्द प्राय सभी फुटकर विक्रतों के यहां लिखे हुए देखे जाते थे, जो अब नादरत हो चुके हैं। पहले हमारी फिल्मों में गांव के महाजन/ सेठ हीरो की मां कंगन रख कर कठिन समय में पैसे उधार लेती थी, और फिर उनके अत्याचार सहती थी। अब ये बड़े बड़े कॉर्पोरेट/ निर्माता उधार पर सामान देकर बाद में वसूली करते हैं।
© श्री राकेश कुमार
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