डॉ. सलमा जमाल
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है पर्यावरण दिवस पर आपकी एक विचारणीय कविता – “वृक्ष की पुकार”
साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 66
वृक्ष की पुकार… डॉ. सलमा जमाल
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रुकती हुई ,
सांसो के मध्य ,
कल सुना था मैंने ,
कि तुमने कर दी ,
फिर एक वृक्ष की ,
” हत्या “
इस कटु सत्य का ,
हृदय नहीं ,
कर पाता विश्वास ,
” राजन्य “
तुम कब हुए ,नर पिशाच ।।
अंकित किया ,एक प्रश्न ?
क्यों ? केवल क्यों ?
इतना बता सकते हो ,
तो बताओ ?क्यों त्यागा ,
उदार जीवन को ?
क्यों उजाड़ा ,
रम्य वन को ?क्यों किया ,
हत्याओं का वरण ?
अनंत – असीम ,जगती में
क्या ? कहीं भी ना ,
मिल सकी ,तुम्हें शरण ? ।।
अच्छा होता
तुम ,अपनी
आवश्यकताएं ,
तो बताते ,
शून्य ,- शुष्क ,
प्रदूषित वन जीवन ,
की व्यथा देख ,
रोती है प्रकृति ,
जो तुमने किया ,
क्या वही थी हमारी नियति ?।।
शैशवावस्था में तुम्हें ,
छाती पर बिठाए ,
यह धरती ,
तुम्हारे चरण चूमती ,
रही बार-बार ,
रात्रि में जाग – जाग
कर वृक्ष ,
तुम्हें पंखा झलते रहे बार-बार,
तब तुम बने रहे ,
सुकुमार ,
अपनी अनन्त-असीम ,
तृष्णाओं के लिए ,
प्रकृति पर करते रहे
अत्याचार ।।
हम शिला की
भांति थे ,
निर्विकार ,
तुम स्वार्थी –
समयावादी,
और गद्दार ,
तभी वृद्ध ,
तरुण – तरुओं,
पर कर प्रहार ,
आयु से पूर्व ,
उन्हें छोड़ा मझधार ,
रिक्त जीवन दे ,
चल पड़े
अज्ञात की ओर ,
बनाने नूतन ,
विच्छन्न प्रवास ।।
किस स्वार्थ वश किया ,
यह घृणित कार्य ?
क्या इतना सहज है ,
किसी को काट डालना ,
काश !
तुम कर्मयोगी बनते ,
प्रकृति के संजोए ,
पर्यावरण को बुनते ,
प्रमाद में विस्मृत कर ,
अपना इतिहास ,
केवल बनकर रह
लगए ,उपहास ।।
काश !तुमने सुना होता ,
धरती का ,करुण क्रंदन ,
कटे वृक्षों का ,
टूट कर बिखरना ,
गिरते तरु की चीत्कार ,
पक्षियों की आंखोंका ,सूनापन ,
आर्तनाद करता , आकाश ,
तब संभव था ,कि तुम फिर ,
व्याकुल हो उठते ,
पुनः उसे ,रोपने के लिए ।।
अपना इतिहास ,
बनाने का करते प्रयास ,
तब तुम ,वृक्ष हत्या ,
ना कर पाते अनायास ।।
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© डा. सलमा जमाल
298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
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