श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “पानीपत…“ श्रृंखला की पहली कड़ी।)
☆ आलेख # 71 – पानीपत – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
एक थी मुख्य शाखा और एक थे मुख्य प्रबंधक. शाखा अभी भी है, हालांकि, अब तो अपने स्थान से दूसरी जगह स्थानांतरित हो गई है. इसे बहुत साल पहले हिंदी में पानीपत और अंग्रेजी में वाटरलू कहा जाता था. वाटरलू वह स्थान है जहाँ नेपोलियन बोनापार्ट ने शिकस्त को टेस्ट किया था याने वरमाला का नहीं पर विजयरथ पर लगाम लगाने वाली “हार”का सामना किया था. इस शाखा के बारे भी यही किवदंती थी कि यहाँ के मुख्य नायक या तो अपना कार्यकाल पूरा करते हुये सहायक महाप्रबंधक के पथ पर अग्रसर होते हैं या फिर नेतृत्व के लायक मनोबल का अभाव महसूस करते हुये स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति की ओर अग्रसर होते हैं. “भैया, हमसे ना हो पायेगा” का ही इंग्लिश रूपांतरण वीआरएस है और “यार जब आपसे संभलती नहीं तो फिर ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों’ वाला गाना गाते हुये रुखसती क्यों नहीं लेते. ये या फिर ऐसा इनके सभी शुभचिंतकों और अशुभचिंतकों का सोचना रहता है. इस शाखा का तालघाट से या किसी भी ताल, तलैया, घाट, गढ़, पुर, गाँव, नगर से कोई संबंध नहीं है. कृपया ढूंढने में समय जाया न कर इस व्यंग्य का आनंद लेने की गुजारिश की जाती है. ऐसी चुनिंदा शाखा और आगे वर्णित मुख्य प्रबंधक से हम सभी का सर्विस के दौरान वास्ता पड़ा होगा या फिर दूर से देखा और सुना भी होगा. कुछ ने मन ही मन कहा भी होगा कि “अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे”या फिर इन तीसमारखाँ के तीस टुकड़े हो जाने हैं यहाँ पर, हमने तो पहले ही समझाया था भाई कि प्रमोशन वहीं तक लेना सही है जहाँ नौकरी सुरक्षित रहे. अब ये तो न पहले समझे न बाद में. वही “हाथ पैर में दम नहीं और हम किसी से कम नहीं”अब जब वास्ता पड़ेगा तो समझ में आ जायेगा कि कभी कभी दुश्मन भी सही और हितकारी सलाह दे देता है. आखिर उसे भी तो अदावत भंजाने के लिये विरोधी के होने की जरूरत पड़ती रहती है. अब नये नये विरोधी आये दिन तो मिलते नहीं.
अब बात इन” काल्पनिक रिपीट काल्पनिक “पात्र की जो अपने कैडर की प्रमोशन पाने की निर्धारित रफ्तार से बहुत आगे चल रहे थे और इस मुगालते में थे कि हर कुरुक्षेत्र में हर अर्जुन को कोई न कोई श्रीकृष्ण मिल ही जाता है और अगर कहीं न भी मिल पाये तो सामने कौरव, भीष्म पितामह, कर्ण और द्रोणाचार्य जैसे परमवीर नही मिलते. “खुदी को कर बुलंद इतना कि खुदा बंदे से खुद पूछे कि भाई तेरी रज़ा क्या है. ऐसे आत्मविश्वास की बुलंदियों पर आसमां को छूने की कोशिश इसलिए भी कर पाने की सोच बन गई कि प्रायः नंबर दो, तीन, चार पर काम करते हुये ये धारणा पाल बैठे कि मेहनत तो हम ही करते हैं और हमारी मेहनत और ज्ञान के दम पर जब नंबर वन क्रेडिट भी लेते रहे और ऐश भी करते रहे तो अब जब हमको यही सुअवसर मिला है तो हम भी इसका फायदा क्यों न उठायें और फिर झंडे गाड़कर ये साबित कर दें कि भाई हमारा कोई कैडर नहीं पर ऊपरवाला याने ईश्वर योग्यता और बुद्धि देते समय ये सब नहीं देखता. उसका न्याय सटीक और सर्वश्रेष्ठ होता है।
तो इस बुलंद आत्मविश्वास के साथ वो पहुंच गये राजा के सिंहासन पर बैठकर हुकूमत चलाने. चूंकि जिस स्थान से पदोन्नत हुये थे वो बहुत दुर्गम और खतरनाक था इसलिए यह भी एहसास बना रहा कि टाईमबाउंड स्टे के बाद जो कि इन्होंने स्वयं ही निर्धारित कर लिया था, वापस उस स्थान पर एक कर्तव्यनिष्ठ और बलिदानी सेनापति के समान वापस चले जायेंगे जहाँ परिवार विराजमान था, भार्या भी बैंकिंग की भाषा में अभ्यस्त थी. ये डबल इंजन की सरकार थी जो परिवार रूपी गाड़ी चला रही थी तो स्वाभाविक था कि हर सुविधा, होमडेकोरेशन की हर लक्जरी याने हर बेशकीमती वस्तु सबसे पहले इनके दरवाजे पर ही दस्तक देती थी. डबल इंजन की सरकार पद और लक्जरी के समानुपात को नहीं मानती इसलिए इनकी सौम्यता, विनम्रता और सज्जनता के बावजूद इनके उच्चाधिकारियों के रश्क का टॉरगेट, यही हुआ करते. जब वहाँ से ये पदोन्नति पाकर स्थानांतरित हुये तो परिवार स्थानांतरित नहीं हुआ पर फिर भी गृहणियों की तुलनाबाजी से परेशान पड़ोसियों ने राहत की सांस ली कि अब तो कम से कम एक इंजन का परिचालन खर्च भी बढ़ेगा.
पानीपत का युद्ध भी चलता रहेगा, तालघाट की तरह.
© अरुण श्रीवास्तव
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