श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “विक्रय हेतु रचा नहीं है…”।)
☆ तन्मय साहित्य #187 ☆
☆ विक्रय हेतु रचा नहीं है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
मैंने अपनी रचनाओं को
विक्रय हेतु रचा नहीं है
फिर भी मोल लगाओगे क्या?
जरा सुनूँ तो!
गहन मनन-चिंतन से उपजी
बड़े जतन से इन्हें सँवारा
सत्यनिष्ठ ये सहनशील
निष्पक्ष, निर्दलीय समरस धारा
सुख अव्यक्त दे,
जब भावों को शब्द शब्द
साकार बुनूँ तो।
फिर भी मोल लगाओगे क्या?
जरा सुनूँ तो!
मेले-ठेले बाजारों में
नहीं प्रदर्शन की अभिलाषा
करे उजागर समय सत्य को
शिष्ट, विशिष्ट, लोकहित भाषा,
अन्तस् का तब ताप हरे
जब काव्य पथिक बन
इन्हें चुनूँ तो।
फिर भी मोल लगाओगे क्या?
जरा सुनूँ तो!
करुणा, दया, स्नेह ममता
शुचिता सद्भावों से वंचित हैं
कहो! काव्य के सौदागर
कितना झोली में धन संचित है
है अमूल्य यह सृजन धरोहर
पढ़ पढ़ इनको
और गुनूँ तो।
फिर भी मोल लगाओगे क्या?
जरा सुनूँ तो!
तुमने दिए प्रशस्तिपत्र नारियल,
उढ़ाये शाल-दुशाले
पर मन ही मन दाता होने के
गर्वित भ्रम, मन में पाले,
ऐसे सम्मानों के पीछे छिपे इरादे
जान, अगर मैं
शीष धुनूँ तो
फिर भी मोल लगाओगे क्या?
जरा सुनूँ तो!
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© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश
मो. 9893266014
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈