श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है स्वामी मुक्तानन्द जी द्वारा रचित पुस्तक “चित्त शक्ति विलास” पर पुस्तक चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 142 ☆
☆ “चित्त शक्ति विलास…” – स्वामी मुक्तानन्द ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
चित्त शक्ति विलास
स्वामी मुक्तानन्द
गुरुदेव शक्ति पीठ, गणेशपुरी
चर्चा विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
जीवन क्या है, क्यों है, क्या भगवान कहीं ऊपर एक अलग स्वर्ग की दुनियां में रहते हैं, परमात्मा प्राप्ति का तरीका क्या है, ऐसी जिज्ञासायें युगों युगों से बनी हुई हैं. जिन तपस्वियों को इन सवालों के किंचित उत्तर मिले भी, उन्हें इस ज्ञान की प्राप्ति तक इतने दिव्य अनुभव हो जाते हैं कि वे उस ज्ञान को दूसरों तक पहुंचाने में रुचि खो देते हैं, कुछ अपने मठ या चेले बनाकर इस ज्ञान को एक संप्रदाय में बदल देते हैं. आशय यह है कि यह परम ज्ञान जिसमें हम सब की रुचि होती है, हम तक बिना तपस्या के पहुंच ही नहीं पाता. “चित्त शक्ति विलास” में इस तरह के सारे सवालों के उत्तर सहजता से मिल जाते हैं. भगवान कहीं और नहीं हमारे भीतर ही रहता है. हम भगवान के ही अंश हैं.
गृह्स्थ जीवन में रहते हुये जीवन के इस अति आवश्यक तत्व से आम आदमी अपरिचित ही बना रह जाता है. किन्तु सिद्ध मार्ग के अनुयायी स्वामी मुक्तानन्द के गुरू स्वामी नित्यानंद थे. गुरु के शक्ति पात से स्वामी मुक्तानन्द का कुण्डलनी जागरण हुआ. इस किताब को माँ कुण्डलिनी का वैश्विक विलास कहा गया है. १९७० में प्रथम संस्करण के बाद से अब तक इस किताब की ढ़ेरों आवृत्तियां छप चुकी हैं. यह मेरे पढ़ने में आई यह मुझ पर परमात्मा की कृपा ही है. इसकी किताब की चर्चा केवल इसलिये जिससे जिन तक यह दिव्य ज्ञान प्रकाश न पहुंच सका हो वे भी उससे अवंचित न रह जायें.
सत्य क्या है ? ” शास्त्र प्रतीति, गुरू प्रतीति, और आत्म प्रतिति में अविरोध ही सत्य है.
“मैं, मेरी जाती रहे अल्प भावना, हृद्य में उदय चित्त ज्ञान हो ” यही प्रार्थना स्वामी मुक्तानन्द अपने गुरुदेव से करते हैं, हमें भी इसका अनुसरण करना चाहिये.
आमुख में ही वे इस दिव्य ज्ञान को उजागर करते हुये स्वामी मुक्तानन्द लिखते हें कि “
संसारी जन अपने सभी व्यवहारों के साथ सिद्ध योग का अभ्यास सहजता से कर सकते हैं. यह मार्ग सभी के लिये खुला है. यह कुण्डलिनी शक्ति पदावरूपिणी महादेवी है। इसे कुण्डलिनी के नाम से पुकारते हैं, जो मूलाधार कमल के गर्भ में मृणाल मालिका के समान निहित है। यह कुण्डल आकार में रहती है. वह स्वर्णकान्तियुक्त, तेजोमय है। यह परंशिव की परम निर्भय शक्ति है। वही नर या नारी में जीवरूपिणी शक्ति है। यह प्राणरूप है। मानव अपनी इस अन्तरंग शक्ति को जानकर संसार में रहते हुए उसका उपयोग कर सके इसी उद्देश से मैं इस शक्ति का वर्णन कर रहा हूँ। कुण्डलिनी प्राणवस्वरूप है। उस पारमेश्वरी कुण्डलिनी शक्ति के जग जाने पर जो संसार रुखा, सूखा, रसहीन, असन्तोषयुक्त दिखता है वही रसवान, हराभरा, पूर्ण सन्तोषरूपी बन जाता है।
जो आल्हादिनी, विश्वविकासिनी, पारमेश्वरी शक्ति है, जो चिति भगवती है। वही कुल-कुण्डलिनी है। वह कुण्डलाकार में मूलाधार में स्थित होकर हमारे सर्वांग के व्यवहारों को नियमबद्ध करती है। वह श्रीगुरुकृपा द्वारा जागकर सर्वाग- सहित मानव के इस संसार को उसके अदृष्टानुरूप विकसित करके संसार के जनो में एक दूसरे के प्रति परम मैत्रीपूर्ण ‘परस्पर देवो भव’ की भावना का उदय करते हुए, संसार को स्वर्गमय बनाती है। संसार में जो कुछ भी अपूर्ण है उसे पूर्ण करती है।
यह पारमेश्वरी शक्ति जिस पुरुष में अनुग्रहरूप से जगती है, उसका कायापलट हो जाता है। यह ज्ञान न कल्पित है और न केवल मुक्तानन्द का ही श्रुतिवाक्य है। रुद्रहृदयोपनिषद् का एक सत्य, प्रमाण-मन्त्र है :
“रुद्रो नर उमा नारी तस्मै तस्यै नमो नमः।”
अर्थात इससे ऐसा ज्ञान उदित होता है कि जो आदि-सनातन सत्य, साक्षी परमेश्वर, जगत का मूल कारण, परमाराध्य, निर्गुण, निराकार एवं अज है, वही नर है।
नाम प्रकट परमात्मा है। इसलिये भगवान नाम जपो। नाम ध्याओ’ नाम गाओ । नाम का ही ध्यान करो। नाम जप होता है या नहीं इतना ही ध्यान बहुत है। नाम जपसाधना में रुचि और गुरू में प्रेम पूर्ण | ध्यान की कला देता है। प्रेम की प्रतीति देता है। नाम चिन्ता मणि है। नाम कामधेनु है। नाम कल्पतरू है। दाता है। सच पूछों तो भगवान का नाम वह मंत्र है जो तुमको गुरु से मिला है।
किताब में पहले खण्ड में सिद्धमार्ग के अंतर्गत परमात्मा प्राप्ति के उपाय बताये गये हैं. संसार सुख के लिये ध्यान की आवश्यकता समझाई गई है. जो जिसका ध्यान करेगा उसे वही प्राप्त होता है. परमात्मा का ध्यान करें तो परमात्मा ही मिलेंगे. हर व्यक्ति व स्थान का एक आभा मण्डल होता है अतः एक ही स्थान पर ध्यान करना चाहिये तथा उस स्थान की आभा बढ़ाते रहना चाहिये. स्वामी जी ने उनके साधना काल की अनुभूतियों का भी विशद वर्णन किया है. द्वितीय खण्ड में सिद्धानुशासन के अंतर्गत स्पष्ट बताया गया है कि भगवतत् प्राप्ति के लिये संसार मेंरहते हुये भी मैं और मेरा का त्याग करो, घर का नहीं. सिद्ध विद्यार्थियों के अनुभव भी परिशिष्ट में वर्णित हैं.
यह एक दिव्य ग्रंथ है जो जन सामान्य गृहस्थ को कुण्डलिनी जागरण से परमात्मा प्राप्ति के अनुभव करवाता है.
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈