श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “मुठ्ठी को बाँधो कसकर।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 14 ☆  मुठ्ठी को बाँधो कसकर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

अपने ही हाथों से

फिसल रही उम्र

मुठ्ठी को बाँधो कसकर।

 

समय कहाँ रह पाया

बस में अपने

आँखों में डूब गए

सारे सपने

 

दीपक की लौ जैसी

पिघल रही उम्र

नेह को सहेजो गलकर ।

 

बच्चों के हाथों दे

बचपन की सीख

माँग रहे अब उनसे

जीवन की भीख

 

दूर खड़ी यादों में

बहल रही उम्र

फूलों के आँगन तजकर।

 

सब कुछ बाँटा पाने

है अपनापन

मिला नहीं अब तक पर

मन से ही मन।

 

रोज-रोज चेहरे को

बदल रही उम्र

भीड़ खड़ी देखे हँसकर।

          ***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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