श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 29 ☆
☆ पिंजरा ☆
( कल के अंक में इस कविता का कॅप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा अंग्रेजी अनुवाद अवश्य पढ़िए )
मानवीय मनोविज्ञान के अखंडित स्वाध्याय का शाश्वत गुरुकुल है सनातन अध्यात्मवाद।
भारतीय आध्यात्मिक दर्शन कहता है-गृहस्थ यदि सौ अंत्येष्टियों में जा आए तो संन्यासी हो जाता है और यदि संन्यासी सौ विवाह समारोहों में हो आए तो गृहस्थ हो जाता है।
वस्तुतः मनुष्य अपने परिवेश के अनुरूप शनैः-शनैः ढलता है। इर्द-गिर्द जो है, उसे देखने, फिर अनुभव करने, अंततः जीने लगता है मनुष्य।
जीने से आगे की कड़ी है दासता। आदमी अपने परिवेश का दास हो जाता है, ओढ़ी हुई स्थितियों को सुख मानने लगता है।
परिवेश की इस दासता को आधुनिक यंत्रवत जीवन जीने की पद्धति से जोड़कर देखिए। विराट अस्तित्व के बोध से परे सांसारिकता के बेतहाशा दोहन में डूबा मनुष्य अपने चारों ओर खुद कंटीले तारों का घेरा लगाता दिखेगा।
उसकी स्थिति जन्म से पिंजरा भोगनेवाले सुग्गे या तोते-सी हो गई है।
सुग्गे के पंखों में अपरिमित सामर्थ्य, आकाश मापने की अनंत संभावनाएँ हैं किंतु निष्काम कर्म बिना आध्यात्मिक संभावना उर्वरा नहीं हो पाती।
निरंतर पिंजरे में रहते-रहते एक पिंजरा मनुष्य के भीतर भी बस जाता है। परिवेश का असर इस कदर कि पिंजरा खोल दीजिए, पंछी उड़ना नहीं चाहता।
वर्षों पूर्व लिखी अपनी एक कविता स्मरण हो आई है-
पिंजरे की चारदीवारियों में
फड़फड़ाते हैं मेरे पंख
खुला आकाश देखकर
आपस में टकराते हैं मेरे पंख,
मैं चोटिल हो उठता हूँ
अपने पंख खुद नोंच बैठता हूँ
अपनी असहायता को
आक्रोश में बदल देता हूँ,
चीखता हूँ, चिल्लाता हूँ
अपलक नीलाभ निहारता हूँ,
फिर थक जाता हूँ
टूट जाता हूँ
अपनी दिनचर्या के
समझौतों तले बैठ जाता हूँ,
दुःख कैद में रहने का नहीं
खुद से हारने का है
क्योंकि
पिंजरा मैंने ही चुना है
आकाश की ऊँचाइयों से डरकर
और आकाश छूना भी मैं ही चाहता हूँ
इस कैद से ऊबकर,
एक साथ, दोनों साथ
न मुमकिन था, न है
इसी ऊहापोह में रीत जाता हूँ
खुले बादलों का आमंत्रण देख
पिंजरे से लड़ने का प्रण लेता हूँ
फिर बिन उड़े
पिंजरे में मिली रोटी देख
पंख समेट लेता हूँ,
अनुत्तरित-सा प्रश्न है
कैद किसने, किसको कर रखा है?
वास्तविक प्रश्न यही है कि कैद किसने, किसको कर रखा है?
प्रश्न यद्यपि समष्टिगत है किंतु व्यक्तिगत उत्तर से ही समाधान की दिशा में यात्रा आरंभ हो सकती है।
© संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
खुला आकाश चुनना है या पिंजरा, यह पूर्णतया व्यक्तिगत प्रश्न है। सुंदर, सटीक अभिव्यक्ति।??
सहज उपलब्धि का अभयस्त तोता भी पिंजरे का दासत्व स्वीकार कर लेता है, अपने पंखों की उड़ान -क्षमता को भी भूल जाता है । रचनाकार एक ऐसे प्रश्न से मुखातिब करता है कि प्रायः जो स्वयं बंधन में रहना चाहता है , स्वावलंबन भूल जाता है – निरुत्तर …….