श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 74 – पानीपत… भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

नोस्टाल्जिया का अर्थ है अतीत के सुनहरे दौर में खो जाना और वर्तमान को उपेक्षित करते हुये उदासीनता का आवरण पहनना. ये सिंड्रोम नये परिवेश में घुलमिल जाने में अवरोधक बन जाता है और कार्यक्षमताओं में भी कमी आ जाती है. “मैं तो भूल चली बाबुल का देश (पिछली शाखा) पिया का घर (वर्तमान शाखा) प्यारा लगे”, जैसी भावना शनैः शनैः शनि की गति से आ पाती है. ये काल संक्रमण काल कहलाता है पर शाखाओं को टॉरगेट देने वाले ये धैर्य अफोर्ड नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें लक्ष्य देने वालों की काल गणना में भी ये संक्रमण काल नहीं पाया जाता.

जिस तरह विदेशी दौरों पर जाने वाली क्रिकेट टीमें अभ्यास मैच और वार्म अप मैंच खेलकर नये माहौल में सहज हो जाती हैं, वैसी सुविधाएं बैंक तो क्या किसी भी कार्यालय/संस्था में नहीं होती. स्थानांतरण की प्रक्रिया में तालमेल का अभाव, आने वाले से पहले ही जाने वाले को मुक्त कर देता है. यहाँ भी ऐसा ही हुआ, जाने वाले पहले ही जा चुके थे, आने वाले एकदम से दौड़ने की मन:स्थिति में नहीं आ पा रहे थे. क्रिकेट का 20-20 मैच भी ऐसा ही होता है, पहले ओवर में ही बाउंड्री या सिक्सर के प्रयास कभी बॉल को बाउंड्री पार भेजते हैं तो कभी बैटर, (पुराना नाम बेट्समैन) को पेवेलियन. शाखा के संचालन में नेतृत्व को, टेस्टमैच के बेट्समैन की तरह परफॉर्म करने के लिये अनुमत करना आदर्श स्थिति मानी जाती है, टाईमबाउंड असाइनमेंट और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में 20-20 मैच की संस्कृति हर संस्था की संस्कृति बन गई है.

आधुनिक युग की इस प्रतिस्पर्धा के दौर में आदर्श स्थिति की जगह मार्केट और विपणनकला ही नीतियों का निर्धारण करते हैं. खरगोश और कछुए की कहानी इस दौर में प्रभावी नहीं है. इस कारण भी जो मैन्युपुलेशन, विंडोड्रेसिंग और चमचागिरी में निपुण होते हैं, वो झूठे कमिटमेंट के जाल में अपने बॉस को मंत्रमुग्ध कर हरेक के लिये “राजा बेटा”का उदाहरण बन जाते हैं. ऐसे उदाहरण हर संस्था की कार्य संस्कृति में पाये जाते हैं.

ये श्रंखला भी क्लासिक टेस्टमैच की गति से ही चलती रहेगी ताकि क्लाइमेक्स की जगह खेल की कलात्मकता का आनंद लिया जा सके. धन्यवाद

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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