डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शक़, प्यार, विश्वास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 191 ☆

☆ शक़, प्यार, विश्वास 

‘मन के दरवाज़े से जब शक़ प्रवेश करता है; प्यार व विश्वास निकल जाते हैं, यह अकाट्य सत्य है। शक़ दोस्ती का दुश्मन है और उसके दस्तक देते ही जीवन में तहलक़ा मच जाता है; शांति व सुक़ून नष्ट हो जाता है।’ पारस्परिक स्नेह व सौहार्द दूसरे दरवाज़े से रफ़ूचक्कर हो जाते हैं और उनके स्थान पर काम,क्रोध व ईर्ष्या-द्वेष अपनी सल्तनत क़ायम कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में विश्वास वहां से कोसों दूर चला जाता है। जीवन में जब विश्वास नहीं रह जाता तो वहां पर शून्यता पसर जाती है; शत्रुता का भाव काबिज़ हो जाता है और मानव ग़लत राहों पर अग्रसर हो जाता है। आजकल रिश्तों में अविश्वास की भावना हावी है,जिसके कारण अजनबीपन का एहसास सुरसा के मुख की भांति पांव पसार रहा है और संबंधों को दीमक की भांति चाट रहा है। संदेह,संशय व शक़ ऐसा ज़हर है,जो स्नेह व विश्वास को लील जाता है। वह दिलों में ऐसी दरारें उत्पन्न कर देता है, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है और जब तक मानव इस सत्य से अवगत होता है; बहुत देर हो चुकी होती है। वह प्रायश्चित करना चाहता है, परंतु ‘अब पछताए होत क्या,जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् उसे खाली हाथ लौटना पड़ता है।

रिश्तों की माला जब टूटती है तो जोड़ने से छोटी हो जाती है,क्योंकि कुछ जज़्बात के मोती बिखर जाते हैं। ‘रहिमन धागा प्रेम का,मत तोरो चटकाय/ टूटे ते पुनि न जुरे,जुरे ते गांठ परि जाय,’ क्योंकि एक बार संशय रूपी गांठ के मन में पड़ने से स्नेह, प्रेम व विश्वास दिलों से नदारद हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि रिश्तों का क्षेत्रफल कितना अजीब है/ लोग लंबाई-चौड़ाई तो नापते हैं/ गहराई कोई नहीं आँकता। आजकल के रिश्ते मात्र दिखावे के होते हैं,जो ज़रा की ठोकर लगते टूट जाते हैं भुने हुए पापड़ की मानिंद और कांच के विभिन्न टुकड़ों की भांति इत-उत बिखर जाते हैं। वैसे भी आजकल रिश्तों की अहमियत रही नहीं; यहां तक कि खून के रिश्ते भी बेमानी भासते हैं। सो! इस स्थिति में मानव किस पर विश्वास करे?

छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान की ओर इंगित करती है। सो! सुनना सीख लो,सहना आ जाएगा। सहना सीख लिया तो रहना सीख जाओगे। इसलिए मानव का हृदय विशाल व सोच सकारात्मक होनी चाहिए, क्योंकि नकारात्मकता मानव को अवसाद के व्यूह में लाकर खड़ा कर देती है। मानव को दूसरों की अपेक्षा ख़ुद से उम्मीद रखनी चाहिए,क्योंकि दूसरों से उम्मीद रखना चोट पहुंचाता है और ख़ुद से उम्मीद रखना जीवन को प्रेरित करता है; निर्धारित मुक़ाम पर पहुंचाता है। वैसे संसार में सबसे मुश्किल काम है आत्मावलोकन करना अर्थात् स्वयं से साक्षात्कार कर,स्वयं को खोजना,क्योंकि आजकल मानव के पास समयाभाव है। सो! ख़ुद से मुलाकात कैसे संभव है? इससे भी बढ़कर कठिन है– अपनों में अपनों को तलाशना, क्योंकि चहुंओर अविश्वास का वातावरण व्याप्त है। हमारे अपने क़रीबी व राज़दार ही सबसे अधिक दुश्मनी निभाते हैं। इन असामान्य परिस्थितियों में मानव तनाव-ग्रस्त होकर सोचने लगता है ‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें हज़ार और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ जीवन में इच्छाओं के मकड़जाल में फंसा इंसान लाख चाहने पर भी उनके शिकंजे से बाहर नहीं आ सकता। वक्त व ख़्वाहिशें हाथ में बंधी घड़ी की तरह होती हैं,जिसे हम विषम परिस्थिति में उतार कर रख भी दें,तो भी चलती रहती है। इसलिए कहा जाता है कि ज़रूरतों को पूरा करना मुश्किल नहीं,परंतु असीमित आकांक्षाओं व लालसाओं को पूरा करना असंभव व नामुमक़िन है/ कुछ ख़्वाहिशों को ख़ामोशी से पालना चाहिए अर्थात् उनके पीछे नहीं भागना चाहिए,क्योंकि वे तो माया जाल है; जिसमें मानव फंसकर रह जाता है।

‘जीवन एक यात्रा है/ रो-रोकर जीने से लम्बी लगेगी/ और हंसकर जीने से कब पूरी हो जाएगी/ पता भी न चलेगा।’ सो! मानव को सदैव प्रसन्न रहना चाहिए तथा किसी से अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए,क्योंकि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए हानिकारक हैं। वे मानव को उस कग़ार पर लाकर खड़ा कर देती हैं,जहां वह स्वयं को असहाय अनुभव करता है। किसी से उम्मीद रखना और उसकी पूर्ति न होना; उपेक्षा का कारण बनती है। यह दोनों स्थितियां भयावह हैं। ‘उम्र भर ग़ालिब यह भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर थी/ और आईना साफ करता रहा।’ मानव जीवन में यही ग़लती करता है कि वह सत्य का सामना नहीं करता और माया के आवरण में उलझ कर रह जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘अंदाज़ में न नापिए/ किसी की हस्ती को/ ठहरे हुए दरिया/ अक्सर गहरे हुआ करते हैं।’ परंतु मानव दूसरों को पहचानने की ग़लती करता है और चापलूस लोगों के घेरे से बाहर नहीं आ सकता। दूसरों को खुश करने के लिए मानव को तनाव,चिन्ता व अवसाद से गुज़रना पड़ता है। ‘खुश होना है/ तो तारीफ़ सुनिए/ बेहतर होना है तो निंदा/ क्योंकि लोग आपसे नहीं/ आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं।’ यह जीवन का कड़वा सच है। पद-प्रतिष्ठा तो रिवाल्विंग चेयर की भांति हैं,जिसके घूमते ही लोग नज़रें फेर लेते हैं।

वास्तव में सम्मान व्यक्ति का नहीं; उसके पद,स्थिति व रुतबे का होता है। सो! सम्मान उन शब्दों में नहीं,जो आपके सामने कहे जाते हैं,बल्कि उन शब्दों का होता है; जो आपकी अनुपस्थिति में कहे जाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि व्यक्ति की सोच व व्यवहार उसके जाने से पहले पहुंच जाते हैं। सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है– उपहास,विरोध व अंतत: स्वीकृति। सत्य को सबसे पहले उपहास का पात्र बनना पड़ता है; फिर विरोध सहना पड़ता है और अंत में उसे मान्यता प्राप्त होती है। परंतु सत्य तो सात परदों के पीछे से भी प्रकट हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि सत्य ही शिव है; शिव ही सुंदर है। जीवन में सत्य की राह पर चलना ही श्रेयस्कर है,क्योंकि उसका परिणाम सदैव कल्याणकारी होता है और वह सबको अपनी ओर आकर्षित करता है। व्यवहार ज्ञान से बड़ा होता है और हम अपने विनम्र व्यवहार द्वारा परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से विचार। इसलिए विचार ऐसे रखो कि किसी को तुम्हारे विचारों पर भी विचार करना पड़े अर्थात् सार्थक विचार और सार्थक कार्य-व्यवहार को जीवन में धरोहर-सम संजोकर रखें। ‘जीवन में हमेशा कर्मशील रहें; थककर निराशा का दामन मत थामें,क्योंकि सफल व्यक्ति कुर्सी पर भी विश्राम नहीं करते। उन्हें काम करने में आनंद आता है। वे सपनों के संग सोते हैं और प्रतिबद्धता के साथ जाग जाते हैं। वे लक्ष्य के प्रति समर्पित होते हैं और वही उनके जीने का अंदाज़ होता है।’ यही सोच थी कलाम जी की–आत्मविश्वास रखो और निरंतर परिश्रम करो। कबीरदास जी के मतानुसार ‘आंखिन देखी पर विश्वास करें; कानों-सुनी पर नहीं’,क्योंकि लोग किसी को खुश नहीं देख सकते। उन्हें तो दूसरों के जीवन में आग लगाने के पश्चात् आनंदानुभूति होती है। इसलिए वे ऊल-ज़लूल बातें कर उनका विश्वास जीत लेते हैं। उस स्थिति में उनके परिवार की खुशियों को ग्रहण लग जाता है। स्नेह व प्रेम भाव उस आशियाने से मुख मोड़ लेते हैं और विश्वास भी सदा के लिए वहां से नदारद हो जाता है। उस घर में मरघट-सा सन्नाटा पसर जाता है। घर-परिवार टूट जाते हैं। संदेह व संशय के जीवन में दस्तक देते ही खुशियाँ अलविदा कह बहुत दूर चली जाती हैं। सो! एक-दूसरे के प्रति अटूट विश्वास भाव होना आवश्यक है ताकि जीवन में समन्वय व सामंजस्य बना रहे। वैसे भी मानव को सब कुछ लुट जाने के पश्चात् ही होश जाता है। जब उसे किसी वस्तु का अभाव खलता है तो ज़िंदगी की अहमियत नज़र आती है। इसलिए शीघ्रता से कोई निर्णय न लें,क्योंकि जो दिखाई देता है,सदा सत्य नहीं होता। मुश्किलें कितनी भी बड़ी क्यों न हों; हौसलों से छोटी रहती हैं। इसलिए संकट की घड़ी में अपना आपा मत खोएं; सुक़ून बना रहेगा और जीवन सुचारु रुप से चलता रहेगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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