श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “अँधेरा पीछे पड़ा…”।)
जय प्रकाश के नवगीत # 18 ☆ अँधेरा पीछे पड़ा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
रोज सूरज उगाता हूँ
पर अँधेरा है कि
पीछे ही पड़ा है।
कहाँ रख दूँ
धूप के तिनके
मुश्किल से सहेजे हैं
गढ़ रहे हैं
रोशनी की बात
अपने ही कलेजे हैं
रोज दीपक जलाता हूँ
लिए छाया ढीठ
तम नीचे खड़ा है।
आँगनों तक
पसर कर बैठा
उजली जात का पहरा
दब गया है
बहुत गहरे में
ख़ुशी का एक चेहरा
आस चिड़िया चुगाता हूँ
वक्त ने हरबार
थप्पड़ ही जड़ा है।
बाँध संयम
भोर को दे अर्घ्य
रखकर अल्गनी पर रात
कर्म को ही
मानकर अनुदान
झेले उम्र भर आघात।
रोज साँसें चुराता हूँ
और जीवन है कि
पंछी सा उड़ा है।
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© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈