श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 79 – पानीपत… भाग – 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
हॉलीवुड के सुप्रसिद्ध निर्देशक जेम्स केमरून की हिट फिल्म थी टाइटैनिक. उसका एक दृश्य बहुत हृदयस्पर्शी था. जब जहाज डूब रहा होता है तब डूबते टाइटैनिक जहाज के कप्तान बजाय भागने के, जाकर अपने नियंत्रण कक्ष में बैठ जाते हैं. ये संदेश था कि कैप्टन अंत तक अपने जहाज के साथ होता है. जिम्मेदारियां, लोगों के कर्मक्षेत्र का हिस्सा होती हैं जिन्हें निभाना खुद की पसंद नहीं बल्कि अनिवार्य होता है. युद्ध चाहे कारगिल का हो या महाभारत का, युद्ध में वापस जाने का विकल्प योद्धाओं के पास होता नहीं है. जब परम वीर चक्र विजेता विक्रम बत्रा कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व शहादत की ओर बढ़ते हैं तो ये किसी मैडल के लिये नहीं होता. किन्हीं कारणों से पराजित को दिया गया अभयदान, आत्मविश्वास तोड़ने वाला दान ही होता है जिसके साथ शर्मिंदगी जीवनपर्यंत झेलनी पड़ती है. हर व्यक्ति को यह अधिकार होता है कि वह अपनी क्षमताओं का आकलन करते हुये ही बड़े उत्तरदायित्वों को स्वीकारने की प्रतिस्पर्धा का प्रत्याशी बने. अवसरवादिता से किसी व्यक्ति को कोई भी संस्था उपकृत नहीं करती. अभिमन्यु अपने अधूरे ज्ञान के बावजूद द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह में चले गये क्योंकि उनका मनोबल, युद्ध से पीछे हटने की इजाज़त नहीं दे रहा था.
मनचाहे स्थानों और मनचाहे असाइनमेंट मिलने का वचन किसी पदोन्नति में नहीं मिलता. पर अगर ये लगे कि गल्ती तो हो ही गई है और जो असाइनमेंट वहन करना पड़ रहा है उसे पूरा करना खुद के बस की बात नहीं है तो विकल्प क्या है? जुगाड़ करके वहाँ से पतली गली पकड़ के निकल जाना या फिर अक्षमता स्वीकारने का साहस दिखाकर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का रास्ता पकड़ना. एक व्यवहारिक गली और भी है कि इंतजार करना कि जिनका टाइटैनिक है वो खुद विकल्प ढूंढ ही लेंगे. अगर टाइटैनिक किसी की व्यक्तिगत संपत्ति है तो वो तो कप्तान बदलने में देर नहीं करेगा पर संस्थागत निर्णय, हमेशा देर से अवगत होने और फिर विलंब से निर्णय होने की परंपरागत प्रक्रिया में बंधे होते हैं. उनके पास भी योग्य पात्र का चयन और उपलब्धता की समस्या बनी रहती है इसलिए स्थानापन्न याने ऑफीशियेटिंग का विकल्प ज्यादा प्रयुक्त होता है.
पदोन्नति का महत्वपूर्ण घटक अंक आधारित मूल्यांकन है जो अधिकतर शतप्रतिशत या 95 से 99 अंक पाये व्यक्ति को ही सफलता का पात्र बनाता है. क्या इस प्रकरण में इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि शतप्रतिशत अंक पाना, मूल्यांकन रहित ऐसी औपचारिकता बन गई है जो सिर्फ संबंधों और सबजेक्टिव ओपीनियन के आधार पर अमल में लाई जाती है??? व्यवहारिक और वैयक्तिक आंतरिक शक्तियों और दुर्बलताओं का कोई आकलन नहीं होता. शायद संभव भी न हो जब तक कि ऐसा मौका न आये. हर जगह सब कुछ या कुछ भी धक नहीं पाता, कभी कभी कुछ प्रकरणों में ये साफ साफ दिख जाता है.
पानीपत सदृश्य शाखा के मुखिया का, सारे दरवाजे खटखटाने के बाद भी मनमाफिक अनुकंपा नहीं मिलने से, मन बदलते जा रहा था. हर सुबह “ये शाखा मेरे बस की नहीं है” के साथ शुरु होती और अपनी इस भावना को वो अपने निकटस्थ अधिकारियों से शेयर भी करते रहे. उनके पास ऐसी टीम थी जो उनका मनोबल मजबूत करने के साथ साथ संचालन में भी अतिरिक्त ऊर्जा के साथ काम करती रही. इस जटिल शाखा में काम और कस्टमर्स का दबाव, किसी को भी आराम करने की सुविधा का लाभ उठाने की अनुमति नहीं देता था. यहाँ पर कुछ बहुत ही एक्सट्रा आर्डिनरी स्टाफ थे जिनकी कार्यक्षमता और काम सीखने की ललक प्रशंसनीय थी. लोन्स एंड एडवांसेस पोर्टफोलियो बेहद प्रतिभाशाली प्राबेशनरी अधिकारियों, ट्रेनी ऑफीसर्स और मेहनती अधिकारियों से सुसज्जित था. आज प्रायः सभी सहायक महाप्रबंधक/उपमहाप्रबंधक जैसे वरिष्ठ पदों पर कार्यरत हैं. शाखा से उसी अवधि के लगभग एक वर्ष बाद ही, सात युवा अवार्ड स्टाफ, सहायक प्रबंधक के रूप में पदोन्नत हुये. शाखा स्तर पर कभी ऐसा मनमुटाव या मतभेद नहीं था जो प्रबंधन को तनावग्रस्त करे. ऐसे कर्मशील लोग होने के बावजूद, उनकी ये खूबियाँ मुखिया की उदासीनता और तनाव को दूर नहीं कर पा रही थी. उन्होंने अपनी मंजिल “स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति” की तय कर ली थी और वो इसी दिशा में शनैः शनैः बढ़ रहे थे.
पानीपत में अभी बहुत कुछ बाकी है.
© अरुण श्रीवास्तव
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