हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 30 – स्वयं कभी कविता बन जाएँ …… ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित एक गीत  स्वयं कभी कविता बन जाएं….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 30☆

☆ स्वयं कभी कविता बन जाएं…. ☆  

 

होने, बनने में अन्तर है

जैसे झरना औ’ पोखर है।।

 

कवि होने के भ्रम में हैं हम

प्रथम पंक्ति के क्रम में हैं हम

मैं प्रबुद्ध, मैं आत्ममुग्ध हूँ

गहन अमावस तम में हैं हम।

तारों से उम्मीद लगाए

सूरज जैसे स्वप्न प्रखर है……

 

जब, कवि हूँ का दर्प जगे है

हम अपने से दूर भगे हैं

भटकें शब्दों के जंगल में

और स्वयं से स्वयं ठगे हैं।

भटकें बंजारों जैसे यूँ

खुद को खुद की नहीं खबर है।……

 

कविता के संग में जो रहते

कितनी व्यथा वेदना सहते

दुःखदर्दों को आत्मसात कर

शब्दों की सरिता बन बहते,

नीर-क्षीर कर साँच-झूठ की

अभिव्यक्ति में सदा निडर है।……

 

यह भी मन में इक संशय है

कवि होना क्या सरल विषय है

फिर भी जोड़-तोड़ में उलझे

चाह, वाह-वाही, जय-जय है

मंचीय हावभाव, कुछ नुस्खे

याद कर लिए कुछ मन्तर है।……

 

मौलिकता हो कवि होने में

बीज नए सुखकर बोने में

खोटे सिक्के टिक न सकेंगे

ज्यों जल, छिद्रयुक्त दोने में

स्वयं कभी कविता बन जाएं

यही काव्य तब अजर अमर है।…..

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601