श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 80 – पानीपत… भाग – 10 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
बैंक्स को नेटवर्किंग जिसे कोर बैंकिंग भी कहा गया, उसी तरह अटपटा लगा जैसे हायर सेकेंडरी तक हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने के बाद महाविद्यालयीन शिक्षा अंग्रेजी में हो और समझने वाले और समझाने वाले अलग अलग पादान पर खड़े हों. इसी को “सर के ऊपर से निकलना” भी कहा जाता है. बदलते समय के साथ आधुनिकता को अपनाना हमेशा वाणिज्यिक अनिवार्यता रही है और इस परिवर्तन को सुगमतापूर्वक लागू करना भी उतना ही आवश्यक है. यहाँ कम्फर्ट ज़ोन में रहने का मतलब पाषाण युग में रहने जैसा पिछड़ापन माना जाता है. अगर रुक जायेंगे तो बदलाव आपको अकेला छोड़कर आगे बढ़ जायेंगे और यह अयोग्यता की पहचान बन जायेगी. कोर बैंकिंग प्रणाली को लागू करना बड़ी और जटिल शाखाओं के लिये उससे भी बड़ी और अनवरत चलने वाली जटिलताएं लेकर आया. इसे विशेषज्ञों की भाषा में “teething problems” कहा जाता है. विडंबना है कि जो इस तकलीफ से गुजरते हैं वो इस टर्मिनालाजी को नहीं समझ पाते और जो समझ पाते हैं, वे जटिलता किस चिड़िया का नाम है, ये समझ नहीं पाते. तो जो कुछ नहीं जानते थे और जिनके सर पर ऐसी कोई जिम्मेदारी नहीं थी, उनके लिये ये आम बात थी पर जिन्हें इस प्रणाली को शाखाओं में लागू करना था, उनके लिये ये भी एक तरह का पानीपत था. दिन हो या रात, जिस तरह बेटी के विवाह में पिता को कन्या के अलावा भी बहुत कुछ दान करना पड़ता है, छोड़ना पड़ता है, उसी तरह बेहाल थे वे सारे प्रबंधक जो इन जटिल शाखाओं के सिरमौर थे. उनकी हालत हाइवे या फ्लाईओवर से सटे घर के निवासी समान था जहाँ गुजरनेवाली हर बस हर ट्रक लगता है सीने पर से ही गुजर रही है.
पानीपत शाखा में भी यही जटिलता नजर आने लगी थी. नये सिस्टम को जानना और समझना शाखा के हर स्टाफ की इच्छा थी जो वक्त के साथ धीरे धीरे क्षमता में वृद्धि कर ही देता. पर कस्टमर्स की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप हर काम का होना धीरे धीरे ही संभव था, त्वरित निदान सपना था. शुरुआत में ऐसा ही लगा कि पहले से कच्चे रास्तों पर चलने वाली गाड़ी, रेतीले पथ पर चल कम और घिसट ज्यादा रही है.
दशहरा-दीपावली का अंतराल दैनिक कामों के अलावा फेस्टिवल बोनांजा भी लेकर आता है जो वाहन ऋणों के बजट को आसानी से पाने में मदद करता है. ये ऐसा समय भी होता है जब प्रवासी स्टाफ ये फेस्टिवल अपने परिवार के साथ मनाने के लिये अवकाश मांगता है. हमारे मुख्य प्रबंधक इन सबकी जिम्मेदारी अपने अधीनस्थ प्रबंधकों को सौंपकर, उनके कालातीत होने वाली यात्रा अवकाश सुविधा युक्त यात्रा पर रवाना हो चुके थे. कुरुक्षेत्र का युद्ध ऑफीशियेटिंग कर रहे योद्धाओं द्वारा लड़ा जा रहा था. शायद ये आत्मा की गहराइयों तक पहुंच रहे “स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति” के संकल्प का नतीजा था कि संस्था से विरक्ति की भावना उन्हें उत्तरदायित्व निर्वहन की चिंताओं से भी मुक्त कर रही थी. आई. सी. यू. से वेंटिलेटर की यात्रा का रिटर्न टिकट प्रबल जिजीविषा के बिना मिलता नहीं है. अंतत:वही हुआ जो ऐसी स्थिति में होता है. अर्जुन को गीता का ज्ञान देने वाले कृष्ण इस कुरुक्षेत्र में नहीं थे जो उन्हें रणभूमि के योद्धाओं के कर्तव्य और रणभूमि नहीं त्यागने की मजबूरी समझा पाते. पलायन दशहरे से दीपावली पर्व तक का अंतराल ले चुका था और देवउठनी एकादशी के साथ ही पानीपत के देव भी उठकर, मंद गति और तनाव से ध्वस्त मनोबल के साथ अवतरित हुए. अवकाश से वापसी, व्यक्तित्व में जोश, ताजगी और क्षमता में वृद्धि लेकर होती है जो यहाँ नदारद थी.
पुनः यह लिखना आवश्यक है कि इस श्रंखला का किसी व्यक्ति विशेष से कोई संबध नहीं है. पानीपत का सामना करना असाइनमेंट की अनिवार्यता होती है जो व्यक्ति पर ही निर्भर करती है. श्रंखला जारी रहेगी.
© अरुण श्रीवास्तव
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈