हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 30 ☆ रिश्ते बनाम गलतफ़हमी ☆ – डॉ. मुक्ता
डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “हाउ से हू तक”. डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख हमें साधारण मानवीय व्यवहार से रूबरू कराता है। यह सच है कि धन दौलत और पद प्रतिष्ठा का चोली दामन का साथ है, किन्तु मानवीय व्यवहार तो आपके नियंत्रण में है न ।डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य दर्ज करें )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 30☆
☆ रिश्ते बनाम गलतफ़हमी ☆
शीशा और रिश्ता दोनों ही बड़े नाज़ुक होते हैं। दोनों में सिर्फ़ एक ही फर्क़ है…शीशा ग़लती से और रिश्ते गलतफ़हमी से टूट जाते हैं। उपरोक्त वाक्य में छिपा है… जीवन का सार्थक संदेश। दोनों की सुरक्षा अर्थात् हिफाज़त करना अत्यंत आवश्यक है। ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’… दोनों स्थितियों में लागू है यह सिद्धांत… दोनों ही नाज़ुक हैं और छोटी-सी ग़लती या गलतफ़हमी से टूट जाते हैं और टूटने पर भले ही जुड़ जायें, परंतु पूर्व-स्थिति में नहीं आ पाते। स्मरण होंगी—आपको रहीम जी की यह पंक्तियां ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय। टूटे पे फिर ना जुरै, जुरै गांठ परि जाय’ प्रेम रूपी धागा चटकने के पश्चात् टूट जाता है और एक बार टूटने पर पुन: जुड़ नहीं पाता, उस में गांठ अवश्य पड़ जाती है अर्थात् दिलों में दरार पड़़ जाने के पश्चात् मानव कभी भी सामान्य नहीं हो सकता। सो! संबंधों को संभाल कर रखिये। कांच के टूटने पर उसके असंख्य टुकड़े हो जाते हैं और आपका पूरा अक्स उसमें नज़र नहीं आता। रिश्ते गलतफ़हमी से टूटते हैं… इसलिए कभी भी कानों सुनी बात पर विश्वास न करें। अक्सर लोग तो दूसरों के घर में आग लगा कर तमाशा देखते हैं।
दूसरी ओर ‘घर का भेदी लंका ढाए’ अर्थात् मन- मुटाव होने पर जब दूसरे पक्ष या आपके घर का कोई सदस्य भावावेश में आकर बाग़ी हो जाता है… किसी दूसरे की शरण में चला जाता है, तो सोने की लंका तक भी जल जाती है, सर्वस्व नष्ट हो जाता है। इसलिए कभी भी दूसरों की तो छोड़िए, अपनों से भी दुश्मनी मत कीजिए। यह कहावत तो आपने सुनी होगी कि ‘आप को आपका सबसे क़रीबी व्यक्ति ही सर्वाधिक हानि पहुंचाता है, क्योंकि वह आपकी सोच व कार्य-व्यवहार से बखूबी परिचित होता है। इसलिए कभी भूल कर भी, किसी पर विश्वास मत कीजिए और अपने मन की बात सांझा मत कीजिये, क्योंकि राज़दार ही दुश्मनी निभाते हैं…आपके पतन व विनाश का कारण बनते हैं।
हां! कई बार पारस्परिक वैमनस्य की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। सो! सुनी-सुनाई बात पर विश्वास करके अपना आपा मत खोइए…उससे संवाद कीजिए तथा अपना पक्ष रखिए, क्योंकि यह स्थिति दिलों के फ़ासलों को इस क़दर बढ़ा देती है कि इंसान एक-दूसरे का चेहरा देखना भी पसंद नहीं करता। यदि किसी बात पर ग़लतफ़हमी हो जाती है,तो आपस में विचार-विनिमय कीजिए, ताकि मनोमालिन्य समाप्त हो जाए और स्थिति शीघ्रातिशीघ्र सामान्य हो जाए अन्यथा इसका अंजाम कुछ भी हो सकता है…अक्सर ऐसी दुश्मनी पीढ़ी- दर-पीढ़ी चलती रहती है। संवाद व इपसी विचार-विमर्श इस अप्रत्याशित स्थिति से मुक्ति पाने का सर्वोत्तम साधन है। जब भी आप इस तथ्य से अवगत हों… बातचीत का सिलसिला तुरंत आगे बढ़ायें। मन में व्यर्थ की शंकाओं को पनपने न दें, क्योंकि राई का पहाड़ बनने में समय नहीं लगता… अफ़वाहें तो वायु से भी तीव्र वेग से फैलती हैं।
रिश्तों में सदैव गर्माहट का अहसास होना चाहिए। एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव सदैव आमादा रहे, तभी ज़िंदगी की गाड़ी फर्राटे से आगे बढ़ सकती है। रिश्तों की दास्तान बड़ी अजब है। रिश्ते खुशी व ग़म के अहसास हैं, जज़्बात हैं, भाव हैं, संवेदनाएं हैं और रिश्ते आगे बढ़ते हैं…स्नेह-सौहार्द व समर्पण- त्याग से। जब तक आप इनका प्रेम से सिंचन करते रहेंगे, ज़िंदगी में कोई आपदा दस्तक नहीं देगी…वह तीव्र गति से सीधी-सपाट दौड़ती रहेगी। छोटे-छोटे ज्वालामुखी तो अक्सर संबंधों में फूटते रहते हैं, परंतु उनका अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। सो! हमें दूसरों की विषाक्त बातों से अपने मन को मलिन नहीं होने देना चाहिए, बल्कि वमन कर बाहर निकाल फेंकना अपेक्षित है। इसके द्वारा ही हमारी ज़िंदगी सुचारू ढंग से आगे बढ़ सकती है।
प्रशंसा को आप विनम्रता से स्वीकार करें और आलोचना पर गंभीरता से विचार करें। यदि आप दोनों स्थितियों में सम रहते हैं, तो आपके पथ में कोई अवरोधक उपस्थित नहीं हो सकता। यदि प्रशंसा में आप फूले नहीं समाते और अपने हृदय में अहंकार का प्रवेश वर्जित रखते हैं…आलोचना पर आप गहराई से चिंतन-मनन करते हैं , तो आप सम्पूर्ण सृष्टि पर साम्राज्य स्थापित कर सकते हैं। परंतु अहंनिष्ठ मानव जीती हुई बाज़ी भी हार जाता है और अर्श से सीधा फर्श पर आन पड़ता है। अहं क्रोध का जनक है। इसलिए अहं व क्रोध में कभी भी कोई निर्णय न लें। यह दोनों विवेक के शत्रु हैं…एक स्थान पर नहीं रह सकते।
जहां विवेक नहीं, वहां सत्य नहीं, सही सोच नहीं। इसके लिये आवश्यकता है… अच्छे-बुरे व गुण-दोषों के चिंतन-मनन करने की, क्योंकि सकारात्मक सोच ही हमें तनावमुक्त जीवन जीने की राह दिखलाती है। दूसरी ओर नकारात्मक सोच हमारी जीवन-नौका को अवसाद के भंवर में हिचकोले खाने को छोड़ देती है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म कीजिए, क्योंकि जो आप करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। गीता के निष्काम कर्म का संदेश ध्यातव्य है, अनुकरणीय है। मानव को अपने कर्मों का फल अवश्य भुगतना पड़ता है।कबीर जी का यह दोहा विचारणीय है…’बोया पेड़ बबूल का, आम कहां ते खाय’ अर्थात् बुरे कर्म करके सुफल की अपेक्षा करना व्यर्थ है, निष्फल है…सबसे बड़ी मूर्खता है।
अच्छे कर्म व मधुर वाणी दो अनमोल रतन हैं। यदि आप सुकर्म करते हैं और आपका व्यवहार कटु है, तो आप सदैव निंदा के पात्र बने रहेंगे… लोग आपसे बात तक करना भी पसंद नहीं करेंगे। इसलिए मधुर वचन बोल कर, सबसे विनम्र व्यवहार करें, क्योंकि विनम्रता की जन्मदात्री है विद्या…इसलिए अध्ययन व चिंतन-मनन कीजिए और जब आवश्यकता हो तभी बोलिए…दूसरे शब्दों में जब आपके शब्द मौन से बेहतर व अधिक सार्थक हों, तभी बोलना उचित है। मौन में सभी समस्याओं का समाधान निहित है। इसलिए इसे नव-निधियों की खान कहा गया है। मौन से आपकी भीतरी शक्तियां जाग्रत होती हैं, जो आपको विश्व में श्रेष्ठ स्थान पर प्रतिस्थापित करा सकती हैं। गलत संगति में रहने से अकेला रहना श्रेष्ठ है। उसी प्रकार बोलने से बेहतर है, चुप रहना। इसलिए कहा गया है पहले तोलिए, फिर बोलिए। यदि हम अनर्गल प्रलाप से बचेंगे, तो व्यर्थ की ग़लतफ़हमियां नहीं होंगी, स्नेह व सौहार्द के संबंध बने रहेंगे…जीवन में सामंजस्यता का भाव बना रहेगा और समरसता की स्थापना होगी… अलौकिक आनंद होगा। सो! न गलती की संभावना होगी, न ग़लतफ़हमी से रिश्ते टूटेंगे और न एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ेगा। सो! रिश्तों को कांच व भुने हुए पापड़ की भांति स्वीकारिये, क्योकि वे पल भर में टूट जाते हैं। मुझे याद आ रही हैं, नयी कविता की दो पंक्तियां,’मेरे सपने ऐसे टूटे, जैसे भुने हुए पापड़’ सपने भी बहुत नाज़ुक होते हैं, ज़रा सी चोट लगने पर दरक़ जाते हैं, जैसे रिश्ते तनिक-सी गलतफ़हमी व उपेक्षा से उस कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जहां मनुष्य स्वयं को ठगा-सा महसूसता व किंकर्तव्यविमूढ़-सा पाता है। शायद! इसलिए शक़ को दोस्ती का दुश्मन कहा गया है। इसके जीवन में दस्तक देते ही जीवन की तमाम खुशियां जाने कहां विलीन व नदारद हो जाती हैं और ज़िंदगी उस दोराहे पर आकर खड़ी हो जाती है, जहां से उसे कोई रास्ता नहीं सूझता। सो! रिश्तों की मासूम बच्चे की भांति परवरिश करना अपेक्षित है।
वास्तव में रिश्ते जब मज़बूत होते हैं, तभी महसूस होते हैं तथा अंतर्मन में घर जाते हैं और शक़ की गुंजाइश नहीं रहती… जीवन द्रुत गति से दौड़ता हुआ कैसे गुज़र जाता है। आइए! एक-दूसरे के प्रति गहन विश्वास रखें, सच्चे मित्र की भांति, उसकी अनुपस्थिति में भी, उसके पक्ष में एक मज़बूत ढाल व सुख-दु:ख के सच्चे साथी बन कर खड़े रहें… कभी उसकी निंदा सुनकर बरगलाएं नहीं… तुरंत प्रतिक्रिया न दें…सोच-विचार कर प्रत्युत्तर दें। यह बात सदैव मन में रखनी अपेक्षित है कि लोगों का काम तो नदी व सरोवर के शांत जल में पत्थर फेंक कर, उसे उद्वेलित करना होता है… उसी प्रकार लोग निंदा रूपी पत्थर फेंक कर उसके जीवन में खलल उत्पन्न कर उल्लसित होते हैं, जिसका भयावह पक्ष सम्मुख आने पर आपके हाथ खाली होते हैं अर्थात् कई बार तो जन्मजात संबंध भी हाशिये पर चले जाते हैं और हम हाथ मलते रह जाते हैं।
सो! मन से नकारात्मकता के भाव निकाल कर सकारात्मक ऊर्जा से आप्लावित करें… यही जिंदगी की चाहना है, अपेक्षा है, रिश्तों की ऊर्जा है…इन्हें महसूसें तथा बचाने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर रहें। वैसे समय को सबसे बड़ा हीलर कहा गया है, जो सब प्रकार के घावों को भर देता है। परंतु वाणी के घाव कभी नहीं भरते…इसलिए सदैव मधुर वाणी बोलनी अपेक्षित है। अटूट विश्वास व समर्पण भाव ही इन्हें बचाने की सर्वश्रेष्ठ साधना है। अंत में, मैं यह कहना चाहूंगी कि सभी सुंदर वस्तुएं दिल से आती हैं और बुरी वस्तुएं मस्तिष्क से। इसलिए संबंध व दोस्ती के लिए हृदय रूपी उर्वरा अपेक्षित है। मन में कभी मलाल न आने दें। सो! चिर वसंत रहेगा और रिश्तों में प्रगाढ़ता आएगी, जिसे मिटाने का साहस ज़माने भर के लोगों में नहीं होगा। इसलिए मस्तिष्क को कभी हृदय पर हावी न होने दें, क्योंकि मस्तिष्क चिंतन-मनन करता है, जबकि हृदय में स्वीकार्यता भाव प्रमुख होता है। स्वार्थ पर आधारित रिश्ते कभी स्थाई नहीं होते, ज़रा-सी गलतफ़हमी रूपी खरोंच लगते ही टूट जाते हैं।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
मो• न•…8588801878