डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कहानी ‘वीरगाथा’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 207 ☆
☆ कहानी – वीरगाथा 

नरेश पत्नी के इन्तज़ार में बीड़ी फूँकता घर की चौखट पर बैठा है। भीतर आशा ज़ोर ज़ोर से अपना पाठ याद करने में लगी है। छोटा अशोक दीवार से टिका ऊँघ रहा है। सब मीना के इन्तज़ार में हैं कि काम से लौटे तो घर में भोजन की खटर-पटर शुरू हो।

मीना के आते ही अशोक उससे चिपक जाएगा। उसका आँचल पकड़े पूरे घर में ठुनकता रहेगा, तब तक जब तक उसके पेट में कुछ पड़ न जाए। उसके बाद फिर उसे नींद आने लगेगी।

अभी आशा अपना पाठ याद करती है, ‘वीरांगना, वीरांगना माने बहादुर स्त्री।’ अन्य शब्दों के साथ बार-बार लौटकर ‘वीरांगना’ पर आती है। याद कर के स्कूल में सुनाना है।

दरवाज़े पर बैठा नरेश अचानक हँसता है— ‘लो आ गयीं वीरांगना। बड़ी देर से वीरांगना को पुकार रही थी।’

मीना पति के बगल से गुज़र कर घर में प्रवेश करती है। चेहरे पर थकान और थकान से उत्पन्न तनाव। उसे पता है दूसरों के घर का काम खत्म होने पर अपने घर का काम शुरू होना है। पति बस बीड़ी फूँकता उसके इन्तज़ार में बैठा रहेगा कि कब वह आये और भोजन का जुगाड़ हो। बिना दस बार कहे वह किसी काम के लिए हिलता डुलता नहीं।

मीना तीन-चार घरों में झाड़ू- पोंछा करती है। एक घर में खाना भी बनाती है। लौटते-लौटते शाम के सात आठ बजते हैं। लौटने पर थोड़ा आराम करने की इच्छा होती है, लेकिन कहाँ हो पाता है? घर में घुसते ही पति और बच्चों की नज़रें उस पर टिक जाती हैं। थोड़ी देर हुई कि पति का भुनभुनाना और अशोक की चीख-पुकार शुरू हो जाती है। घर का काम निपटाये बिना पीठ टिकाना संभव नहीं।

नरेश के काम का कोई ठिकाना नहीं। दूकानों में काम करता है, लेकिन चार छः महीने में उसकी मालिक से खटपट हो जाती है। घर में बड़े गर्व से कहता है, ‘अपन इज्जत की नौकरी करते हैं। इज्जत नहीं मिलती तो एक मिनट में नौकरी को लात मार देते हैं।’ मीना जवाब देती है, ‘हाँ, मैं दिन भर छाती मार कर कमाती हूँ इसीलिए तुम्हें इज्जत की बड़ी फिकर रहती है। जिस दिन रोटियों के लाले पड़ जाएँगे उस दिन इज्जत को लेकर चाटते रहना।’

नरेश की बच्चों को पढ़ाने लिखाने में रुचि नहीं है। कहता है, ‘पढ़ने लिखने से क्या होता है? आजकल छोटे-छोटे बच्चे भी बढ़िया कमाई करते हैं और माँ-बाप की मदद करते हैं। रौनक लाल को देखो, उसके पाँच बच्चे हैं और सभी कमाने में लगे हैं। सबेरे से सब्जी की टोकरी लेकर निकल जाते हैं। पढ़ने लिखने से क्या मिलने वाला है? वक्त की बरबादी है।’

सुनकर मीना का पारा चढ़ जाता है। कहती है, ‘पढ़ लिखकर आदमी बन जाएँगे, नहीं तो लड़की सारी जिन्दगी मार खाएगी और लड़का कहीं बोझा ढोएगा। तुम्हारे दिमाग में यह बात नहीं घुसेगी।’

लेकिन नरेश के लिए इन बातों का कोई मतलब नहीं था। एक दिन वह बिना मीना को बताये अशोक को स्कूल से बीच में ही ले आया और उसे चाट-पकौड़ी खिलाने ले गया। अशोक मस्ती में बाप के साथ घूमता रहा। लेकिन गड़बड़ यह हुई कि बाप की सारी हिदायत के बावजूद वह इतनी बढ़िया खबर को माँ से छिपा नहीं सका। सुनने की देर थी कि घर में भूचाल आ गया। मीना ने हाथ के बर्तन दीवार पर मारे और चूल्हे में पानी डालकर पलंग पर सिर तक ओढ़ कर जा लेटी। सारे घर की सिट्टी पिट्टी गुम। अन्ततः नरेश को बेटे के सिर पर हाथ रखकर कसम खानी पड़ी कि दुबारा ऐसा नहीं होगा। तब जाकर मीना के सिर से भूत उतरे। लेकिन दूसरे दिन वह स्कूल जाकर प्राचार्य को हिदायत दे आयी कि उसके अलावा किसी अन्य के साथ बच्चे को बीच में न भेजा जाए।

नरेश एक दूसरा तीर चलाता है। कहता है, ‘चलो लड़के की पढ़ाई की बात तो समझ में आयी, लेकिन लड़की को पढ़ाने का क्या मतलब है? लड़की को दूसरे घर जाना है, उसकी पढ़ाई पर पैसे खर्च करने का क्या मतलब? कहीं काम करने लगे तो चार पैसे घर में आएँगे।’

मीना जवाब देती है, ‘नहीं पढ़ाओगे तो ससुराल में मार खाकर गूँगी गाय की तरह वापस आ जाएगी। पढ़ लिख जाएगी तो जिन्दगी में कहीं न कहीं अपना ठौर बना लेगी। मेरी तरह दूसरों के घर में बर्तन नहीं घिसेगी।’

नरेश प्रशंसा से उसकी तरफ देखता है, कहता है, ‘तू बड़ी सयानी है, भाई। तेरे पास हर बात का जवाब है।’

वैसे नरेश को पत्नी से यह शिकायत भी है कि वह अपने परिवार के आकार को बढ़ने नहीं देती। नरेश के विचार से जब तक घर में तीन चार बच्चे न हों तब तक घर घर नहीं लगता। घर को जीवन्त बनाने के लिए थोड़ी किलिर-बिलिर, थोड़ा हल्लागुल्ला ज़रूरी है। अभी घर सूना सूना लगता है।

मीना की सोच साफ है। कहती है, ‘तुम्हारे छः भाई-बहन थे, सो कोई पाँचवीं से आगे नहीं पढ़ा। अब सब की फजीहत हो रही है। बच्चों की लाइन लगाओगे तो इनकी भी वही हालत होगी। कीड़ों की तरह बिलबिलाते एक दिन दुनिया से चले जाएँगे।’

सुनकर नरेश दाँत निकाल कर मौन हो जाता है।

नरेश के मुहल्ले की हालत ठीक नहीं है। मुख्य सड़क की एक पतली गली में उसका मुहल्ला बसा है। खासी गन्दगी रहती है। स्ट्रीट- लाइट बहुत कम है। शाम देर से मीना लौटती है तो कई लोग शराब के नशे में गली के किनारे लेटे या बैठे दिख जाते हैं। हर दूसरे तीसरे घर से झगड़े और मारपीट की आवाज़ें उठती हैं। ऐसे में बच्चों को कैसे अच्छी शिक्षा मिले और कहाँ से अच्छे संस्कार मिलें? इतनी हैसियत नहीं कि कोई बेहतर जगह तलाश की जा सके।

नेताओं को इस मुहल्ले की याद हर पाँच साल बाद आती है, लेकिन उनकी रूचि कुछ सुधार करने में नहीं होती। रात को शराब और पैसे बँट जाते हैं और नेताओं का कर्तव्य पूरा हो जाता है। मुहल्ले के लोग भी पीकर अपना और सत्यानाश कर लेते हैं।

इस सब के बीच मीना अपने संसार को सँवारने सुधारने में लगी रहती है। उसने अपने बल पर घर में फ्रिज, टीवी, सोफा जैसी चीज़ें जुटा ली हैं। नई चीज़ें लेने की गुंजाइश नहीं है इसलिए जहाँ काम करती है वहाँ से पुरानी चीज़ें खरीद लेती है। चीज़ें आधी से भी कम कीमत में मिल जाती हैं। पत्नी के इसी पुरुषार्थ के कारण नरेश पौरुष का ज़्यादा प्रदर्शन नहीं करता। अपनी गृहस्थी को देखकर मीना की छाती जुड़ाती है। बच्चों को स्कूल ले जाने के लिए उसने रिक्शा लगा रखा है।

मीना को इस बात की बहुत फिक्र रहती है कि बच्चों में कुटेव न पड़ें। एक बार बच्चों के मामा सूरज ने मज़ाक में अशोक को सिगरेट का कश लगवा दिया था। बच्चा खाँसते-खाँसते बेहाल हो गया। आँख और नाक से पानी बहने लगा। फिर मीना ने ऐसा रौद्र रूप दिखाया कि मामा जी को बिना भोजन-पानी के बहन के घर से भागना पड़ा। दो महीने तक उसे बहन को मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं हुई।

‘वीरांगना’ शब्द का अर्थ जानने के बाद से ही नरेश मीना को व्यंग्य से ‘वीरांगना’ कह कर पुकारने लगा था। घर आता तो आशा से पूछता, ‘क्यों, वीरांगना अभी नहीं आयी?’

मीना ने मुहल्ले को ठीक-ठाक रखने के लिए  स्त्रियों का एक समूह बना लिया है। जहाँ गड़बड़ होती है वहाँ यह समूह पहुँच जाता है। जब से यह समूह तैयार हुआ, गली के किनारे पड़े रहने वाले नशेबाज़ गायब हो गए हैं क्योंकि यह समूह उनके अखंड आनन्द में व्यवधान पैदा कर देता है। अभी तक निर्द्वंद्व पड़े रहने वालों की लानत- मलामत होने लगी है।

इस समूह का पहला शिकार वे शोहदे बने जो गली के नुक्कड़ की पान की दूकान पर जमा होकर लड़कियों और युवतियों पर फिकरे कसते थे। शोहदों पर समूह का आक्रमण ऐतिहासिक और बिलकुल अप्रत्याशित था। शोहदे जान और इज्ज़त बचाकर भागे और फिर वह स्थान निरापद हो गया।

मुहल्ले में तेजराम के घर रोज़ ही जुए की बैठक जमती थी। मुहल्ले के कई मर्द अपनी जमा- पूँजी  लुटाने वहाँ पहुँच जाते थे। तेजराम के पास कोई काम धंधा नहीं था। जुए में नाल काटने में कुछ आमदनी हो जाती थी। कुछ चाय-पकौड़े का इन्तज़ाम करने में मिल जाता था। इसीलिए घर के लोग आपत्ति नहीं करते थे।

नरेश को भी जुए की लत थी। वह कई बार बिजली के बिल और बच्चों की फीस के पैसे वहाँ चढ़ा चुका था। एक दिन मीना की बड़ी मुश्किल से खरीदी नयी साइकिल भी जुए की भेंट चढ़ गयी। ऐसे मौकों पर नरेश लौटकर गुमसुम लेट जाता था। मीना की बकझक का कोई जवाब नहीं मिलता था।

फिर एक दिन तेजराम के घर पर पुलिस का छापा पड़ा। जुआरी बाहर अँधेरे का फायदा उठाकर तितर-बितर हो गये। तीन पुलिस के हत्थे चढ़ गये। सौभाग्य से उस दिन नरेश वहाँ नहीं था। उस दिन से तेजराम का जुए का अड्डा अनिश्चितकाल के लिए बन्द हो गया।

बाद में बात खुली कि यह करतूत मुहल्ले के महिला मंडल की थी। जुआड़ियों ने मंडल की स्त्रियों को खूब कोसा, कुछ घरों में विवाद भी हुआ, लेकिन पुलिस के डर से मुहल्ले के वीर पुरुष खून का घूँट पीकर रह गये।

घर में नरेश ने मीना पर गुस्सा दिखाया। बोला, ‘मुहल्ले में थोड़ा सा टाइमपास हो जाता था, वह भी तुम लोगों से नहीं देखा गया। मैडम, गिरस्ती की गाड़ी दो पहियों से चलती है। मर्द औरत का साथ न दे तो गिरस्ती चल चुकी।’

मीना ने जवाब दिया, ‘मर्द-औरत का साथ घर को बनाने के लिए होना चाहिए, उसे मिटाने के लिए नहीं। मर्द मिटाने वाला रास्ता पकड़ेंगे तो औरतें भी सुधारने वाला रास्ता पकड़ेंगीं।’

नरेश बड़ी देर तक उसे गुस्से से घूरता रहा, फिर परास्त होकर बाहर चौखट पर जा बैठा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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