श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 81 – पानीपत… भाग – 11 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
देवउठनी एकादशी के बाद और शाखा में आने के पश्चात स्वाभाविक था कि कुछ दिनों तक मुख्य प्रबंधक जी का मन शाखा में नहीं लगा. ऐसा इसलिए भी था क्योंकि वे अपने स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति के आवेदन को चुपचाप अग्रेषित कर चुके थे. वैसे इस मामले में यह उनकी ईमानदारी से अपनी अक्षमता को स्वीकार करना और फिर ऐसा दुस्साहसी निर्णय लेने का अद्वितीय उदाहरण था. उन्होंने शाखा के बेहतर संचालन और स्वंय के भावी अहित हो जाने की संभावना के मद्देनजर यह निर्णय लिया जिसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की जानी चाहिए. ऐसे कितने लोग हैं जो अपनी अक्षमताओं के साथ कुर्सी से चिपके रहते हैं, संस्था का अहित करते रहते हैं और इस जुगाड़ में लगे रहते हैं कि ऐसे कठिन असाइनमेंट से छुटकारा पाया जाये और आरामदायक व सुरक्षित पोस्टिंग मिल जाये. ऐसा होने के बाद भी शेखी बघारने के उदाहरण भी बहुत मिलते हैं.
अगला दौर कोरबैंकिंग के अल्पकालिक प्रशिक्षण का था जो ऐसी सभी शाखाओं के स्टाफ को दिया जा रहा था. तो उन्होंने भी ऐसे मौके को गंवाना उचित नहीं समझा बल्कि शाखास्तरीय समस्याओं से दूर होने का पेड अवकाश ही माना. शाखा का कोर बैंकीय असमायोजित प्रविष्टियों का पहाड़ भी उन्हें रोक नहीं पाया और वे मुख्यालय पहुंच गये. नोटिस अवधि के तीन माह किसी न किसी तरह तो बिताने ही थे तो यह प्रशिक्षण अटेंड करना भी बेहतर आइडिया था. उनको यह नहीं मालूम था कि सब कुछ हर बार उनके प्लान के अनुसार नहीं हो पाता. प्रशिक्षण के दौरान ही बैंक के मुखिया जब असमायोजित प्रविष्टियों के मॉनीटरिंग रिपोर्ट चार्ट का अवलोकन कर रहे थे तो इस शाखा का माउंट एवरेस्ट उनकी तीक्ष्ण नजरों से ओझल न हो सका. बाद में जब उन्हें ज्ञात हुआ कि शाखा के मुख्य प्रबंधक पास ही प्रशिक्षण ले रहे हैं तो उन्होंने उसी दिन शाम को बुला भेजा. मुख्य प्रबंधक को लगा कि ये मुलाकात उनकी फरियाद सुनने के लिये है. याने दोनों महानुभावों की सोच अलग अलग दिशा में चल रही थी. अंततः जब उन्होंने दबाव बढ़ाया तो इन्होंने भी आखिर कह ही दिया कि सर, ये शाखा मेरे बस की नहीं है और मैंने अपना वालिंटियर रिटायरमेंट का आवेदन थ्रू प्रापर चैनल भेज दिया है. बड़े साहब इस इम्प्रापर उत्तर से पहले स्तब्ध हुये और फिर नाराज भी. स्वयं जमीन से जुड़े अति वरिष्ठ अधिकारी थे जो महत्वपूर्ण और क्रिटिकल शाखाओं के प्रबंधकों से डायरेक्ट बात करते रहते थे. उनके कार्यक्षमताओं और समर्पित नेतृत्व के मापदंड बहुत उच्चस्तरीय और अभूतपूर्व थे. उनका सामना इस तरह के प्रबंधन से शायद पहली बार हुआ हो. पर उनके दीर्घकालिक अनुभव को यह निर्णय लेने में बिल्कुल भी देर नहीं की कि “ये मुख्य प्रबंधक जितने दिन शाखा में रहेंगे, शाखा का नुकसान ही करेंगे. ” बैंक को ऐसे त्वरित पर सटीक निर्णय लेने वाले सूबे के नायक बहुत कम ही मिलते हैं. उनके व्यक्तित्व में सादगी, उच्च कोटि की बुद्धिमत्ता और जटिल शाखाओं और जटिल परिस्थितियों पर नियंत्रण का पर्याप्त अनुभव साफ नजर आता था. तो उन्होंने अब अनुवर्तन या समझाइश की जगह मुख्य प्रबंधक को सीधे और स्पष्ट निर्देश दिये कि “ठीक है, अब आपको शाखा वापस जाने की जरूरत नहीं है, सीधे घर जाइये. नोटिस पीरियड के बाद हम आपका एक्जिट आवेदन स्वीकार कर लेंगे. अब ये शाखा हमारी जिम्मेदारी है, आपकी नहीं. अंधा क्या चाहे दो आंखें, तो फिर वहाँ से सीधे घरवापसी हुई जो नौकरी की कीमत पर थी. ऐसे कितने लोग हैं जो यह “हाराकीरी” कर सकते हैं???
यहाँ शाखा में “आये ना बालम का करूँ सजनी” चल रहा था. जब फोन से पता किया गया तो पता चला कि कृष्ण के गीताज्ञान देने के बावजूद अर्जुन कुरुक्षेत्र छोड़कर, ‘रणछोड़दास’ बन चुके थे. “तेरा जाना बनके तकदीरों का मिट जाना” जैसी स्थिति बन चुकी थी. ये शतरंज की बाजी नहीं थी जहाँ राजा को शह के बाद मात मिलने से बाजी खत्म हो जाती है. जाहिर है जो योद्धा शेष थे, उन्हीं के हिस्से में इस युद्ध को लड़ना आया था. बैलगाड़ी को खींचने वालों में एक संख्या कम हो चुकी थी.
क्रमशः…
© अरुण श्रीवास्तव
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