श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है महानगरीय जीवन पर आधारित एक सार्थक रचना ‘महानगर में घर ‘। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकेंगे. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 18 – विशाखा की नज़र से ☆
☆ महानगर में घर ☆
महानगरीय घरों में ,
बस एक दीवार का पर्दा है
उसके घर के कंपन से
मेरा घर हिलता है …
महानगरीय घरों में
बाहर का कोलाहल घर मे बसर करता है
वाहनों का शोर ही जब -तब
गजर का काम करता है ..
महानगरीय घरों में
खिड़कीयों ने अपना का कार्य तजा है
मन की तरह उनको भी
मोटे परदों से ढका है …
महानगरीय घरों में किसने
सूर्य उदय – अस्त देखा है
पिता का घर से जाना और लौटना ही
दिन – रात का सूचक होता है
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र