डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अति सुंदर व्यंग्य ‘बदनाम अगर होंगे तो क्या—‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
(‘एक सम्मानपूर्ण सम्मान’ का क्षेपक)
‘हलो।’
‘हलो। सिंह साहब बोल रहे हैं?’
‘जी,बोल रहा हूँ।’
‘प्रणाम। मैं बाराबंकी से मुन्नालाल वीरान। आठ दस दिन पहले मैंने आपको मुझे मिले सम्मान के बारे में बताया था।’
‘जी,याद आया।’
‘ तो आपने यह जो व्यंग्य फेसबुक पर शायर ज़ख्मी जी के बारे में डाला कि ज़ख्मी जी दस हजार देकर सम्मान करवाते हैं और आने-जाने, खाने-रहने का खर्चा खुद उठाते हैं, यह क्या आपने मेरे सम्मान के हवाले से लिखा है?’
‘जी, है तो आप पर ही। आपके सम्मान का किस्सा इतना दिलचस्प था कि मैं अपने को लिखने से रोक नहीं पाया। नाम बदलकर डाल दिया। आपको बुरा लगा क्या?’
‘अरे आप गज़ब कर रहे हैं। इसमें बुरा लगने की कौन सी बात है? दरअसल आपकी पोस्ट पढ़कर इतना अच्छा लगा कि मैंने तुरन्त उसके नीचे कमेंट कर दिया कि वह पोस्ट मेरे बारे में है। आपने शायद मेरा कमेंट देखा नहीं। फिर मेरा कमेंट पढ़कर मित्रों के करीब डेढ़ सौ लाइक और बधाइयाँ आ गयीं। कई मित्रों ने फोन से बधाई दी। बड़ा आनन्द आया। मैंने सम्मान देने वाली संस्था को वह पोस्ट अपने कमेंट के साथ भेज दी। वे भी बहुत खुश हैं।’
‘आपका फोन देखकर मुझे लगा आपको बुरा लग गया।’
‘हद कर दी सर आपने। मैं तो खुश हूं कि आप जैसे प्रतिष्ठित लेखक की बदौलत चार लोगों में मेरा ज़िक्र हुआ। इसी तरह आगे भी याद करते रहें। आपका बहुत आभारी हूँ। मैंने तो आपसे निवेदन किया था कि आप भी इसी संस्था से अपना सम्मान करवा लें, लेकिन आपने कोई जवाब नहीं दिया।’
‘जी, फिलहाल मैं अपने को किसी सम्मान के लायक नहीं समझता। जब अपने को इस लायक समझूँगा तब बताऊँगा।’
‘यह आपका बड़प्पन है। चलिए ठीक है। जैसी आपकी मर्जी। प्रणाम।’
‘प्रणाम।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈