(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – भीड़ के चेहरे…)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 233 ☆
व्यंग्य – भीड़ के चेहरे…
मैं अखबार की हेड लाईन पढ़ रहा था, जिसमें भीड़ द्वारा की गई तोड़ फोड़ की खबर बोल्ड लैटर में छपी थी, मुझे उस खबर के भीतर एक अप्रकाशित चित्र दिखा, जिसमें बिलौटा भाग रहा था और चूहे उसे दौड़ा रहे थे. चित्र देखकर मैने बिलौटे से पूछा, ये क्या ? तुम्हें चूहे दौड़ा रहे हैं ! बिलौटे ने जबाब दिया यही तो भीड़तंत्र है. चूहे संख्या में ज्यादा हैं, इसलिये चलती उनकी है. मेरा तो केवल एक वोट है, दूसरा वोट मेरी बिल्लो रानी का है, वह भी वह मेरे कहे पर कभी नही देती. बल्कि मेरी और उसकी पसंद का आंकड़ा हमेशा छत्तीस का ही होता है. चूहो के पास संख्याबल है. इसलिये अब उनकी ही चलती है.
मैने खबर आगे पढ़ी लिखा था अनियंत्रित भीड़ ने ला एण्ड आर्डर की कोशिश करती पोलिस पर पथराव किया. मैने अपने आप से कहा, क्या जमाना आ गया है, एक वो परसाई के जमाने के इंस्पेक्टर मातादीन थे, जिन्होने चांद पर पहुंच कर महज अपने डंडे के बल पर पोलिस का दबदबा कायम कर लिया था और एक ये हमारे जमाने के इंस्पेक्टर हैं जो भरी रिवाल्वर कमर में बांधे खुद अपनी ही जान से हाथ धो रहे हैं. मुझे चिंता हो रही है, अब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का वाले मुहावरे का क्या होगा ?
तभी मुझे एक माँ अपने बच्चे को गोद में लिये दिखी, बच्चा अपनी तोतली जवान में बोला गग्गा ! पर जाने क्यो मुझे सुनाई दिया शेर ! मैं जान बचाकर पलटकर भागा,मुझे यूं अचानक भागता देख मेरे साथ और लोग भी भागने लगे,जल्दी ही हम भीड़ में तब्दील हो गये. भीड़ में शामिल हर शख्स का चेहरा गुम होने लगा. भीड़ का कोई चेहरा नही होता. वैसे भीड़ का चेहरा दिखता तो नही है पर होता जरूर है, अनियंत्रित भीड़ का चेहरा हिंसक होता है. हिंसक भीड़ की ताकत होती है अफवाह, ऐसी भीड़ बुद्धि हीन होती है. भीड़ के अस्त्र पत्थर होते हैं. इस तरह की भीड़ से बचने के लिये सेना को भी बख्तर बंद गाड़ियो की जरूरत होती है. इस भीड़ को सहज ही बरगला कर मतलबी अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, भीड़ पथराव करके, नारे लगाकर, तोड़फोड़ करके या आग लगा कर, हिंसा करके, किसी ला आर्डर बनाने की कोशिश करते इंस्पेक्टर को मारकर,गुम जाती है,तितर बितर हो जाती है, फिर इस भीड़ को वीडीयो कैमरो के फुटेज में कितना भी ढ़ूंढ़ो कुछ खास मिलता नही है, सिवाय किसी आयोग की जांच रिपोर्ट के. तब इस भीड़ को लिंचिंग कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है. यह भीड़ गाय के कथित भक्तो को गाय से बड़ा बना देती है. ऐसी भीड़ के सामने पोलिस बेबस हो जाती है.
भीड़ एक और तरह की भी होती है. नेतृत्व की अनुयायी भीड़. यह भीड़ संवेदनशील होती है. इस भीड़ का चेहरा क्रियेटिव होता है.गांधी के दांडी मार्च वाली भीड़ ऐसी ही भीड़ थी. दरअसल ऐसी भीड़ ही लोकतंत्र होती है. ऐसी भीड़ में रचनात्मक ताकत होती है. जरूरत है कि अब देश की भीड़ को, भीड़ के दोनो चेहरो से परिचित करवाया जाये तभी माब लिंचिंग रुक सकती है. गग्गा शब्द की वही कोमल अनुभूति बने रह सके, गाय से डर न लगने लगे, तोतली जुवान में गग्गा बोलने पर, शेर सुनाई न देने लगे इसके लिये जरूरी है कि हम सुशिक्षित हो कि कोई हमें डिस्ट्रक्टिव भीड़ में बदल न सके.
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
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