हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #34 – उम्मीदें ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “उम्मीदें”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 34 ☆

☆ उम्मीदें

लोकतंत्र का पंचवर्षीय महोत्सव पूरा हुआ. करोड़ो का सरकारी खर्च हुआ जिसके आंकड़े शायद सूचना के अधिकार के जरिये कोई भी कभी भी निकलवा सकता है, पर कई करोड़ो का खर्च पार्टियो और उम्मीदवारो ने ऐसा भी किया है जो कुछ वैसा ही है कि “घी कहां गया खिचड़ी में..” व्यय के इस सर्वमान्य सत्य को जानते हुये भी हम अनजान बने रहना चाहते है. शायद यही “हिडन एक्सपेंडीचर”  राजनीति की लोकप्रियता का कारण भी है. सैक्स के बाद यदि कुछ सबसे अधिक लोकप्रिय है तो संभवतः वह राजनीति ही है. अधिकांश उम्मीदवार अपने नामांकन पत्र में अपनी जो आय घोषित कर चुके हैं, वह हमसे छिपी नही है. एक सांसद को जो कुछ आर्थिक सुविधायें हमारा संविधान सुलभ करवाता है, वह इन उम्मीदवारो के लिये ऊँट के मुह में जीरा है. प्रश्न है कि- आखिर क्या है जो लोगो को राजनीति की ओर आकर्षित करता है? क्या सचमुच जनसेवा और देशभक्ति ? क्या सत्ता सुख, अधिकार संपन्नता इसका कारण है? मेरे तो बच्चे और पत्नी तक मेरे ऐसे ब्लाइंड फालोअर नही है, कि कड़ी धूप में वे मेरा घंटों इंतजार करते रहें, पर ऐसा क्या चुंबकीय व्यक्तित्व है, राजनेताओ का कि हमने देखा लोग कड़ी गर्मी के बाद भी लाखो की तादाद में हेलीकाप्टर से उतरने वाले नेताओ के इंतजार में घंटो खड़े रहे, देश भर में. इसका अर्थ तो यही है कि अवश्य कुछ ऐसा है राजनीति में कि हारने वाले या जीतने वाले या केवल नाम के लिये चुनाव लड़ने वाले सभी किसी ऐसी ताकत के लिये राजनीति में आते हैं, जिसे मेरे जैसी मूढ़ बुद्धि समझ नही पा रहे.

तमाम राजनैतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार देश के “रामभरोसे” मतदाता की तारीफ करते नही अघाते.  देश ही नही दुनिया भर में हमारे ‘रामभरोसे’ की प्रशंसा होती है, उसकी शक्ति के सम्मुख लोकतंत्र नतमस्तक है. ‘रामभरोसे’ के फैसले के पूर्वानुमान की रनिंग कमेंट्री कई कई चैनल कई कई तरह से कर रहे हैं. मैं भी अपनी मूढ़ मति से नई सरकार का हृदय से स्वागत करता हूं. हर बार बेचारा ‘रामभरोसे’ ठगा गया है, कभी गरीबी हटाने के नाम पर तो कभी धार्मिकता के नाम पर, कभी देश की सुरक्षा के नाम पर तो कभी रोजगार के सपनो की खातिर. एक बार और सही. हर बार परिवर्तन को वोट करता है ‘रामभरोसे’, कभी यह चुना जाता है कभी वह. पर ‘रामभरोसे’ का सपना हर बार टूट जाता है, वह फिर से राम के भरोसे ही रह जाता है. नेता जी कुछ और मोटे हो जाते हैं. नेता जी के निर्णयो पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं, जाँच कमीशन व न्यायालय के फैसलो में वे प्रश्न चिन्ह गुम जाते हैं. रामभरोसे किसी नये को नई उम्मीद से चुन लेता है. चुने जाने वाला ‘रामभरोसे’ पर राज करता है, वह उसके भाग्य के घोटाले भरे फैसले करता है. मेरी पीढ़ी ने तो कम से कम यही होते देखा है. प्याज के छिलको की परतो की तरह नेताजी की कई छवियाँ होती हैं. कभी वे  जनता के लिये श्रमदान करते नजर आते हैं, शासन के प्रकाशन में छपते हैं. कभी पांच सितारा होटल में रात की रंगीनियो में ‘रामभरोसे’ के भरोसे तोड़ते हुये उन्हें कोई स्पाई कैमरा कैद कर लेता है. कभी वे संसद में संसदीय मर्यादायें तोड़ डालते हैं, पर उन्हें सारा गुस्सा केवल ‘रामभरोसे’ के हित चिंतन के कारण ही आता है. कभी कोई तहलका मचा देता है स्कूप स्टोरी करके कि नेता जी का स्विस एकाउंट भी है. कभी नेता जी विदेश यात्रा पर निकल जाते हैं ‘रामभरोसे’ के खर्चे पर. वे जन प्रतिनिधि जो ठहरे. जो भी हो शायद यही लोकतंत्र है. तभी तो सारी दुनिया इसकी इतनी तारीफ करती है. नई सरकार से मेरी यही उम्मीद है कि, और शायद यही ‘रामभरोसे’ की भी उम्मीद होगी कि पिछली सरकारो के गड़े मुर्दे उखाड़ने में अपना श्रम, समय और शक्ति व्यर्थ करने के बजाय सरकार कुछ रचनात्मक करे. कागजो पर कानूनी परिवर्तन ही नही समाज में और लोगो के जन जीवन में वास्तविक परिवर्तन लाने के प्रयास हों.

केवल घोषणायें और शिलान्यास नहीं कुछ सचमुच ठोस हो. सरकार से हमें केवल देश की सीमाओ की सुरक्षा, भय मुक्त नागरिक जीवन, भारतवासी होने का गर्व, और नैसर्गिक न्याय जैसी छोटी छोटी उम्मीदें ही तो हैं, और क्या?

© अनुभा श्रीवास्तव्