डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है वर्तमान सामाजिक परिवेश पर विमर्श करती एक सार्थक एवं विचारणीय कहानी ‘एक फालतू आदमी‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 218 ☆
☆ कहानी – एक फालतू आदमी ☆
(लेखक के कथा-संग्रह ‘खोया हुआ कस्बा’ से)
चन्दन कॉलोनी की रौनकें बहुत कुछ उजड़ गयी हैं। पाँच दस साल पहले यहाँ ख़ूब रौनक थी। शाम होते ही झुंड की झुंड लड़कियाँ कॉलोनी की सड़कों पर साइकिलें लेकर निकल पड़ती थीं, जैसे चिड़ियों के आकाश में तैरते झुंड हों। उनका अल्हड़पन और हँसी पूरी कॉलोनी को गुलज़ार कर देती थी। कॉलोनी में रहने वाले लड़कों के दोस्तों की भी खूब आवाजाही बनी रहती थी। कॉलोनी के किसी भी कोने पर उन्हें बेफिक्री से ज़ोर-ज़ोर से बतयाते हुए देखा जा सकता था। कॉलोनी में बुज़ुर्गों के चेहरे पर भी उत्साह और सुकून पढ़ा जा सकता था। लेकिन अब यह गुज़रे ज़माने की बातें थीं। पिछले पाँच दस साल में ज़्यादातर लड़के लड़कियाँ पढ़ाई या नौकरी के लिए शहर से निकल गये थे और कॉलोनी की रौनक कम हो गयी थी। लड़के लड़कियों की सोच थी कि इस शहर में उनके पंख फैलाने की जगह नहीं है, इसलिए उन्होंने उड़ जाना ही बेहतर समझा था। उनके उड़ जाने के बाद पीछे छूट गये उनके माता-पिता के चेहरे पर रीतापन नज़र आता था।
कई माता-पिता ने अपने बेटे-बहू के साथ भावी जीवन बिताने की उम्मीद में अपने मकानों में कई कमरे बना लिये थे और अब वे परेशान थे कि बड़े मकानों का वे क्या करेंगे। कुछ ने किरायेदार रख लिये थे जबकि कुछ ने किरायेदारों की झंझट में पड़ने के बजाय अकेले ही रहना बेहतर समझा था। बुज़ुर्ग अपनी सुरक्षा के प्रति बेहद सावधान हो गये थे। दरवाज़े की घंटी बजाने पर बिना पूरी ताक-झाँक और इत्मीनान के दरवाज़ा खुलना मुश्किल होता था।
अब शाम होते ही बुज़ुर्ग अपना मोबाइल लेकर बैठ जाते थे और घंटों बेटों-बेटियों और नाती-पोतों से बात करने में मसरूफ रहते थे। यही सुकून पाने का बड़ा ज़रिया था। मोबाइल पर आवाज़ के अलावा प्रियजन को बात करते हुए देखा भी जा सकता था, जो बड़ी नेमत थी। बात ख़त्म होने के बाद भी बुज़ुर्ग बड़ी देर तक फोन पर हुई बातों को ही उठाते-धरते रहते थे।
कॉलोनी में अब बहुत कम लड़के- लड़कियाँ बाकी रह गये थे। अब वहाँ वे ही लड़के रह गये थे जो पढ़ाई-लिखाई में कोई तीर नहीं मार पाये थे या जिनके लिए अपना शहर छोड़ पाना मुश्किल था। ऐसे लड़के-लड़कियांँ अब शहर में ही कोई नौकरी या छोटा-मोटा धंधा खोजते थे।
ऐसे ही लड़कों में नीलेश था जो अपने दोस्तों की तुलना में पीछे छूट गया था। पढ़ाई में वह लाख सिर मारने के बाद भी औसत ही रहा था और इसीलिए न कोई दीवार तोड़ सका, न लंबी उड़ान भर पाया। शहर को न लाँघने का एक कारण यह भी था कि उसे शहर से बहुत प्यार था। अपना शहर छोड़ने के लिए जो बेरुखी चाहिए उसे वह पैदा नहीं कर पाया था। उसने अपने शहर में एम.बी.ए. की कक्षाओं में भी प्रवेश लिया था लेकिन वह दुनिया भी उसे थोथी लगी। उसकी समझ में नहीं आया कि हर वक्त अंग्रेज़ी में ही बातचीत क्यों की जाए या क्लास में टाई लगाकर जाना क्यों ज़रूरी हो। अन्त में वह उस कोर्स को छोड़ कर वापस अपनी दुनिया में आ गया।
कॉलोनी के कोने पर एक छोटा सा पार्क भी था जो बुज़ुर्गों के लिए वरदान था। सुबह-शाम कॉलोनी के बुज़ुर्ग वहाँ इकट्ठे हो जाते थे। बातें ज़्यादातर अपने अपने बच्चों के बारे में ही होती थीं। ज़्यादातर बुज़ुर्गों को इस बात का गर्व था कि उनके बच्चे अच्छी संस्थाओं या मोटी तनख्वाह वाली नौकरियों में पहुँच गये थे। जिनके बच्चे देश से बाहर निकलकर अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे देशों में नौकरी पा गये थे वे अपने को वी.आई.पी. समझते थे।
नीलेश पार्क के इस जमावड़े से बचता था क्योंकि उसे बुलाकर बुज़ुर्ग ऐसे सवाल करते थे जो उसके लिए तकलीफदेह थे। वही सवाल कि अब तक वह कहीं निकल क्यों नहीं पाया, और फिर अपने बच्चों का उदाहरण देते हुए ढेर सारी नसीहतें। नीलेश के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाता। किसी तरह उनसे पीछा छुड़ाता।
बुज़ुर्गों में सबसे ज़्यादा परेशानी उसे वर्मा जी से होती है। उसे देखते ही वे आवाज़ देकर बुलाते हैं। फिर पहला सवाल— ‘क्यों कुछ जमा, या ऐसे ही भटक रहे हो?’ फिर लंबा भाषण— ‘आदमी में एंबीशन होना चाहिए। बिना एंबीशन के आदमी लुंज-पुंज हो जाता है। कुछ दिन बाद वह किसी काम का नहीं रहता। सोसाइटी पर ‘डेडवेट’ हो जाता है। एंबीशन पैदा करो तभी कुछ कर पाओगे।’ फिर वे अपने बेटे का उदाहरण देने लगते हैं जो नीलेश का दोस्त है, लेकिन मुंबई में एक कंपनी में ऊँचे पद पर बैठा है।
वैसे नीलेश अपनी ज़िन्दगी से संतुष्ट है। नौकरी नहीं है लेकिन पिता की हार्डवेयर की दूकान पर बैठकर उन्हें कुछ राहत दे देता है। रोज़ शाम को बूढ़े दादाजी की बाँह पकड़कर उन्हें कुछ देर टहला लाता है। दो बड़ी बहनों की ससुराल आना-जाना होता रहता है और मुसीबत या ज़रूरत में एक दूसरे की मदद होती रहती है। कहीं लंबा रुकना पड़े तो नौकरी का दबाव न होने के कारण तनाव नहीं होता। रिश्तो का रस पूरा मिलता रहता है।
वर्मा जी का बेटा प्रशान्त नीलेश का दोस्त है। शहर आने पर नीलेश को ज़रूर याद करता है। नीलेश की सरलता और उसका औघड़पन उसे अच्छा लगता है। स्वभाव विपरीत होने के कारण उसकी तरफ आकर्षण महसूस होता है। लेकिन प्रशान्त की ज़िन्दगी में फुरसत नहीं है। सारे वक्त जैसे उसके कान कहीं लगे होते हैं। लैपटॉप हर वक्त उसके आसपास होता है। मोबाइल पर व्यस्तता इतनी होती है कि उसके साथ वक्त गुज़ारने के लिए आये दोस्तों को ऊब हो जाती है। लेकिन वर्मा जी को अपने बेटे की व्यस्त ज़िन्दगी से कोई शिकायत नहीं है। उनके हिसाब से कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।
नीलेश के बारे में उसके दोस्तों और कॉलोनी वालों की धारणा बन गयी है कि वह फालतू है, उसके पास कोई काम धंधा नहीं है। इसलिए उससे कॉलोनी के ऐसे कामों में भी सहभागिता की उम्मीद की जाती है जिनमें उसकी कोई रुचि नहीं होती। कई बार उसे ऐसे मामलों में चिढ़ महसूस होने लगती है।
ऐसे ही उपेक्षा-अपेक्षा के बीच एक रात नीलेश के मोबाइल पर रिंग आयी। प्रशान्त था, आवाज़ घबरायी हुई। बोला, ‘अभी अभी पापा का फोन आया था। मम्मी को शायद पैरेलिसिस का अटैक आया है। वहाँ और कोई नहीं है। पापा बहुत परेशान हैं। तू पहुँच जा तो मुझे थोड़ा इत्मीनान हो जाएगा। मैंने बंसल हॉस्पिटल को फोन लगाकर एंबुलेंस के लिए कह दिया है। पहुँचती होगी। मैं सुबह दस बजे फ्लाइट से पहुँच जाऊँगा।’
नीलेश ने टाइम देखा। एक बजा था। वह बाइक उठाकर निकल गया। वहाँ वर्मा जी बदहवास थे। काँपते हुए इधर-उधर घूम रहे थे। बार-बार माथे का पसीना पोंछते थे। नीलेश को देख कर उनके चेहरे पर राहत का भाव आ गया। थोड़ी देर में एंबुलेंस आ गयी और मरीज़ अस्पताल पहुँच गया। चिकित्सकों की देखरेख में मामला नियंत्रण में आ गया। वर्मा जी, थके और बेबस, पत्नी की बेड की बगल में बैठे रहे।
प्रशान्त के पहुँचने तक नीलेश वहाँ रुका रहा। प्रशान्त करीब ग्यारह बजे, बहुत परेशान, वहाँ पहुँचा। माँ को ठीक-ठाक देखकर उसके जी में जी आया। वर्मा जी बेटे को देखकर रुआँसे हो गये। बड़ी देर के दबे भाव चेहरे पर प्रकट हो गये। प्रशान्त ने नीलेश का हाथ पकड़कर कृतज्ञता का भाव दर्शाया।
नीलेश का काम ख़त्म हो गया था। शायद अब कुछ नाते-रिश्तेदार या इष्ट-मित्र आकर मामला सँभाल लें। उसने प्रशान्त से विदा ली। चलते वक्त वर्मा जी की तरफ हाथ जोड़े तो उन्होंने कृतज्ञता से हाथ जोड़कर माथे से लगा लिये। आज वे नीलेश को कोई नसीहत नहीं दे सके।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈