श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी मानवीय आचरण के एक पहलू को दर्शाती लघुकथा “व्यवहार ” । )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #33☆
☆ लघुकथा – व्यवहार ☆
माँ बेटी से परेशान थी और बेटी माँ. दोनों को एक दूसरे की आदतें नहीं सुहाती थी. इस से दोनों को नींद में चलने व बोलने की बीमारी हो गई थी.
“यह बूढ़िया भी न जाने कब तक जीएगी. यह मर क्यों नहीं जाती. ताकि इस की टोका टोकी से मुक्ति मिलें. यह जब तब मेरे मोबाइल में तांक झांक करती रहती है. मैं किस से बात करती हूँ, क्या करती हूँ. कहां जाती हूँ. इसे मुझसे से क्या लेना देना है. ………..’’ यह बड़बड़ाते हुए बेटी बरामदें में टहल रही थी.
इधर माँ कह रही थी, “इस लड़की को न जाने क्या रोग लग गया. न जाने किस किस से बातें करती रहती है. कहीं किसी लड़के के साथ भाग गई या उस से मुंह काला करवा लिया तो मेरी नाक कट जाएगी. भगवान ! मैं क्या करूं ताकि इस नासपीटी को इस बीमारी से छुटकारा मिल जाए”, कहते हुए माँ भी बरामदे में टहलते टहलते आ गई.
दोनों नींद में टहल रही थी. तभी दोनों एक दूसरे से टकरा गई.
अचानक हड़बड़ा कर माँ बेटी की नींद खुल गई.
“मां ! तू यहाँ क्या कर रही है? ”
“अरे ! तू यहां क्या कर रही है ?”’’ दोनों हड़बड़ा कर एक दूसरे से बोली.
“माँ! मैं तो जल्दी उठ कर पानी भरना चाहती थी ताकि तू परेशान न हो. तुझे आराम मिले. हर माँ की सेवा करना बेटी का फर्ज होता है.”
“अच्छा नासपीटी”, माँ ने मन ही मन बड़बड़ाते हुए कहा, “बेटी ! तू सो जा चिंता मत कर. मैं पानी भर लूंगी. तू दिन भर पढ़ लिख कर थक जाती है. इसलिए तू आराम कर.” मां ने बुरा सा मुंह बना कर कहा. मगर, यह ध्यान रखा कि उस का मुंह बेटी न देख ले.
“अच्छा माँ, मेरी प्यारी माँ, “बुरासा मुंह बनाते हुए बेटी अपनी मां से लिपट गई. मगर, दोनों नींद में कही गई अपनी अपनी भावनाएं दबा गई. आखिर व्यवहारिकता का यही सलीका है.
© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”