(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – उंगली उठाने की कश्मकश।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 246 ☆
व्यंग्य – उंगली उठाने की कश्मकश
वोट डालने के लिये हमें प्रेरित करने कहा गया था कि लोकतंत्र में उंगली उठाने का हक तभी है जब उंगली पर वोटिंग वाली काली स्याही लगी हो। हमने भी नाखून के साथ आगे बढ़ती अपनी काली स्याही का निरीक्षण किया। इससे पहले कि वह निशान गुम हो जाये हमने उंगली उठाने का निर्णय लिया। उंगली उठाने से प्रसिद्धि मिलती है। अतः एक उंगली उठाने पर तीन स्वयं अपनी ओर उठती उंगलियों की परवाह किये बगैर हम उंगली उठाने के लिये मुद्दा तलाशने लगे। पहले सोचा मंहगाई को, बेरोजगारी को, लड़कियों की सुरक्षा को, सिनीयर सिटिजन्स की उपेक्षा को मुद्दा बनाये या फिर उंगली उठायें कि जो अंत्योदय की बातें करते हैं उनकी अलमारियों में करोड़ों भरे मिलते हैं। पर अगले ही पल विचार आया कि ये सब तो घिसे पिटे मुद्दे हैं, जब जो विपक्ष में होता है, इन्हीं मुद्दों पर तो सरकार को घेरता है। हमें किसी नये मौलिक मुद्दे की तलाश थी। अंततोगत्वा हमारे सद्यः चुने हुये जन प्रतिनिधियों ने ही हमारी मदद की। हमने यह कहते हुये उंगली उठा दी कि जो लोकतंत्र के नाम पर वोट मांगते हैं वे खुद अपना नेता हाईकमान की हिटलर शाही से चुनते हैं।
मुद्दा मिल जाने के बाद अब हमारी अगली समस्या थी कि आखिर उंगली कैसे उठाये ? उंगली उठायें भी और किसी को खंरोंच भी न आये तो ऐसी उंगली उठाने का कोई औचित्य नहीं था। सामान्य आदमी की ऐसी बेबसी पर हमें बड़ी कोफ्त हुई। सोचा इसी बेबसी को मुद्दा बनायेंगे कभी। पत्नी ने हमें बैचेन देखा तो कारण जान सलाह दी कि एक ट्वीट कर के अपना मुद्दा उछाल दो। हमें यह सलाह जंच गई। हमने फटाफट ट्वीट तो किया ही साथ ही पत्र संपादक के नाम लिखकर उंगली उठा दी।
हमारी उंगली पूरी तरह से उठ भी न पायी थी कि हमारा मेल मिलते ही मित्र संपादक जी का फोन ही आ गया। वे बोले अरे भाई हाईकमान तो हाईकमान होता है पक्ष वालों का हो या विपक्ष का, वह इत्मिनान से अपने निर्णय लेता है। हाईकमान को अपनी सरकार बनवाने की आतुरता तो बहुत होती है, पर जब जीत कर भी सरकार बनाने का दावा नहीं कर पा रहे हों तो उंगली उठाने के बजाय उनकी मजबूरी समझो। कैंडीडेट में सारी योग्यता तो हैं पर वह उस जाति का नही है जो होनी चाहिये। हाईकमान उहापोह में होता है कि जिसे उसने चुनने का मन बनाया है वह स्त्री भी होता तो और बेहतर होता। आखिर जाति, जेंडर, क्षेत्र सब कुछ साधना होता है क्योंकि लोकतंत्र में जनाकांक्षा पूरी करना ही हाईकमान का परम लक्ष्य होता है। हमें ज्ञान प्राप्त हुआ और हम उंगली उठाने की जगह उंगली चटकाते चैनल बदलने के लिये टी वी का रिमोट दबाने लगे।
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
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