डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – मुहल्ले का डॉक्टर ☆
जनार्दन ने एम.बी.बी.एस. करने के बाद मुहल्ले में क्लिनिक खोलने का निर्णय लिया। मुहल्ला पढ़े-लिखे, खाते-पीते परिवारों का था, इसलिए प्रैक्टिस चल पड़ने की काफी गुंजाइश थी।
उन्होंने एक दिन मुहल्ले के परिवारों को क्लिनिक के उद्घाटन का आमंत्रण भेजा। क्लिनिक के सामने शामियाना लगवाया, कॉफी बिस्कुट का इंतज़ाम किया। शाम को मुहल्ले के लोग परिवारों के साथ इकट्ठे हो गये।
बुज़ुर्गों की तरफ से सुझाव आने लगे– ‘किसी को ब्लड-प्रेशर नापने के लिए बैठा देते’ या ‘ब्लड-शुगर की जाँच के लिए किसी को बैठा देते, तब सही मायने में क्लिनिक का उद्घाटन होता।’ डॉक्टर साहब सबके सुझाव सुन रहे थे। हर सुझाव का जवाब था—–‘कल से सब शुरू होगा। आज तो आप सब का आशीर्वाद चाहिए।’
मुहल्ले के बुज़ुर्ग लाल साहब डॉक्टर साहब के पीछे पीछे घूम रहे थे। बीच बीच में कह रहे थे, ‘एक बार मेरी जाँच कर लेते तो अच्छा होता। तबियत हमेशा घबराती रहती है। किसी काम में मन नहीं लगता। भूख भी आधी हो गयी है।’
डॉक्टर साहब ने ऐसे ही पूछ लिया, ‘यह परेशानी कब से है?’
लाल साहब बोले, ‘सर्विस में एक बार डिपार्टमेंटल इनक्वायरी बैठ गयी थी। उसमें तो छूट गया, लेकिन तब से डर बैठ गया। रात को कई बार पसीना आ जाता है और नींद खुल जाती है।’
डॉक्टर साहब ने पीछा छुड़ाया, बोले, ‘कल आइए, देख लेंगे।’
लाल साहब निराश होकर चुप हो गये।
डॉक्टर साहब का उद्घाटन कार्यक्रम हो गया। सब उन्हें शुभकामना और आशीर्वाद देकर चले गये।
दूसरे दिन लाल साहब सबेरे साढ़े सात बजे ही डॉक्टर साहब के दरवाज़े पर हाज़िर होकर आवाज़ देने लगे। डॉक्टर साहब भीतर से ब्रश करते हुए निकले तो लाल साहब बोले, ‘मैं पार्क में घूमने के लिए निकला था। सोचा, लगे हाथ आपको दिखाता चलूँ। दुबारा कौन आएगा।’
डॉक्टर साहब विनम्रता से बोले, ‘साढ़े दस बजे आयें अंकल। उससे पहले नहीं हो पाएगा।’
लाल साहब ने ‘अरे’ कह कर मुँह बनाया और विदा हुए। फिर दोपहर को हाज़िर हुए। डॉक्टर साहब ने जाँच-पड़ताल करके कहा, ‘कुछ खास तो दिखाई नहीं पड़ता। ब्लड-शुगर की जाँच कराके रिपोर्ट दिखा दीजिए।’
लाल साहब निकलते निकलते दरवाज़े पर मुड़ कर बोले, ‘मुहल्ले वालों से फीस लेंगे क्या?’
डॉक्टर साहब संकोच से बोले, ‘जैसा आप ठीक समझें।’
लाल साहब ‘अगली बार देखता हूँ’ कह कर निकल गये।
डॉक्टर साहब ने शाम की पारी में नौ बजे तक बैठने का नियम बनाया था। दो तीन दिन बाद मुहल्ले के एक और बुज़ुर्ग सक्सेना जी रात के दस बजे आवाज़ देने लगे। डॉक्टर साहब निकले तो बोले, ‘अरे, सत्संग में चला गया था। वहाँ टाइम का ध्यान ही नहीं रहा। घर में बच्चे को ‘लूज़ मोशन’ लग रहे हैं। कुछ दे देते। आपके पास तो सैंपल वगैरह होंगे।’
डॉक्टर साहब ने असमर्थता जतायी तो सक्सेना साहब नाराज़ हो गये। बोले, ‘जब मुहल्ले वालों का कुछ खयाल ही नहीं है तो मुहल्ले में क्लिनिक खुलने से क्या फायदा?’
वे भकुर कर चले गये।
फिर एक दिन एक बुज़ुर्ग खन्ना साहब आ गये। उन्होंने बताया कि उनके डॉक्टर साहब के मरहूम दादाजी से बड़े गहरे रसूख थे और उनकी उनसे अक्सर मुलाकात होती रहती थी। वे बार बार कहते रहे कि डॉक्टर साहब उनके लिए पोते जैसे हैं। आखिर में वे यह कह कर चले गये कि वे फीस की बात करके डॉक्टर साहब को धर्मसंकट में नहीं डालना चाहते। चलते चलते वे डॉक्टर साहब को ढेरों आशीर्वाद दे गये।
फिर दो चार दिन बाद रात को एक बजे डॉक्टर साहब का फोन बजा। उधर मुहल्ले के एक और बुज़ुर्ग चौधरी जी थे।बोले, ‘भैया, पेट में बड़ी गैस बन रही है। एसिडिटी बढ़ी है। नींद नहीं आ रही है। कुछ दे सको तो किसी को भेजूँ।’
डॉक्टर साहब ने फोन ‘स्विच ऑफ’ कर दिया।
अब कभी कभी डॉक्टर साहब सोचने लगते हैं कि मुहल्ले में दवाखाना खोलकर अक्लमंदी का काम किया या बेअक्ली का?
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश